अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृगुः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सविता प्रार्थना सूक्त
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बृह॑स्पते॒ सवि॑तर्व॒र्धयै॑नं ज्यो॒तयै॑नं मह॒ते सौभ॑गाय। संशि॑तं चित्संत॒रं सं शि॑शाधि॒ विश्व॑ एन॒मनु॑ मदन्तु दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । सवि॑त: । व॒र्धय॑ । ए॒न॒म् । ज्यो॒तय॑ । ए॒न॒म् । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय । सम्ऽशि॑तम् । चि॒त् । स॒म्ऽत॒रम् । सम् । शि॒शा॒धि॒ । विश्वे॑ । ए॒न॒म् । अनु॑ । म॒द॒न्तु॒ । दे॒वा: ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते सवितर्वर्धयैनं ज्योतयैनं महते सौभगाय। संशितं चित्संतरं सं शिशाधि विश्व एनमनु मदन्तु देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते । सवित: । वर्धय । एनम् । ज्योतय । एनम् । महते । सौभगाय । सम्ऽशितम् । चित् । सम्ऽतरम् । सम् । शिशाधि । विश्वे । एनम् । अनु । मदन्तु । देवा: ॥१७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(बृहस्पते) हे बड़े सज्जनों के रक्षक ! (सवितः) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त उपदेशक ! (एनम्) इस [राजा] को (महते) बड़े (सौभगाय) उत्तम ऐश्वर्य के लिये (वर्धय) बढ़ा और (ज्योतय) ज्योतिवाला कर। (चित्) और (संशितम्) तीक्ष्ण बुद्धिवाले (एनम्) इस [राजा] को (सन्तरम्) अतिशय करके (सम्) यथावत् (शिशाधि) शिक्षा दे, (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् सभ्य लोग (एनम्) इस [राजा] के (अनु मदन्तु) अनुकूल प्रसन्न हों ॥१॥
भावार्थ
राजसभा का उपदेशक राजा आदि सज्जनों को उत्तम-उत्तम उपदेश द्वारा सुशीलता प्राप्त कराके ऐश्वर्य बढ़ाने में प्रवृत्त करे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-अ० २७।८ ॥
टिप्पणी
१−(बृहस्पते) बृहतां सज्जनानां पालक (सवितः) विद्यैश्वर्ययुक्तोपदेशक (वर्धय) समर्धय (एनम्) राजानम् (ज्योतय) ज्योततेः, ज्वलतिकर्मा-निघ० १।१६। ज्योतिर्वन्तं प्रतापिनं कुरु (एनम्) (महते) विशालाय (सौभगाय) उत्तमैश्वर्यभावाय (संशितम्) शो तनूकरणे-क्त। तीक्ष्णबुद्धिम् (चित्) अपि (संतरम्) समस्तरपि प्रत्यये। अमु च च्छन्दसि। पा० ५।४।१२। इति अम्। अतिशयेन (सम्) सम्यक् (शिशाधि) अ० ४।३१।४। शाधि। शिक्षय (विश्वे) सर्वे (एनम्) (अनु) अनुलक्ष्य (मदन्तु) आनन्दन्तु (देवाः) विद्वांसः सभ्याः ॥
विषय
वर्धय, ज्योतय
पदार्थ
१. हे (बृहस्पते) = [ब्रह्मणस्पते] ज्ञान के स्वामिन् ! (सवित:) = सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक प्रभो! (एनम्) = इस अपने उपासक को (वर्धय) = आप बढ़ाइए। (एनम्) = उसे महते (सौभगाय) = महान् सौभाग्य की प्राप्ति के लिए (ज्योतय) = ज्योतिर्मय जीवनवाला कीजिए। २. (संशितं चित्) = खूब तीव्र बुद्धिवाले इसे (सन्तरम) = सम्यक् (संशिशाधि) = तीव्र बुद्धिवाला कीजिए। (विश्वेदेवाः) = 'माता, पिता, आचार्य' आदि सब देव (एनं अनुमदन्तु) = इसे देखकर प्रसन्न हों, 'इसका जीवन अच्छा बना है', ऐसा ही कहें।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हमारी शक्तियों का वर्धन हो, ज्ञानज्योतियों का दीपन हो और महान् सौभाग्य प्राप्त हो। हमारी बुद्धि को प्रभु खूब ही तीव्र करें। सब देव यही कहें कि इसका जीवन अच्छा बना है।
भाषार्थ
(बृहस्पते) हे बृहती अर्थात् महती-वेदवाक् के पति (सवितः) हे उत्पादक परमेश्वर (एनम) इसे [कण्व] की (वर्धय) वृद्धि कर, (एनम्) इसे (महते सौभगाय) महा-सौभाग्य के लिये (ज्योतय) ज्ञान-ज्योति प्रदान कर। (संशितम्) तीक्ष्ण बुद्धि वाले को (चित्) भी (संतरम्) अतिशय रूप में (संशिशाधि) ज्ञान ज्योति द्वारा सम्यक् तथा तीक्ष्ण बुद्धि वाला कर, ताकि (विश्वे देवा) सब विद्वान् (एनम्, अनु) इसे अनुकूलरूप में प्राप्त कर (मदन्तु) हर्षित हों।
टिप्पणी
["बृहस्पते"; बृहस्पति द्वारा वेद प्रकट हुए (ऋ० १०।७१।१)। इस से कण्व (१६।१) वेदस्वाध्यायी ज्ञात होता है। "संशिशाधि" पद "शो तनूकरणे" (दिवादिः) का लोट् लकार में रूप है। तनूकरण का अभिप्राय तीक्ष्ण करना। अतः "कण्व" अर्थात् मेधावी (निघं० ३।१५) की मेधा को तीक्ष्ण करने का कथन "संशिशाधि" द्वारा हुआ है, और वह सात्त्विक तीक्ष्णता वेद के अधिक स्वाध्याय द्वारा अभिप्रेत है। अतः कण्व है ब्रह्मचारी दाध्यायी। इस प्रकार (१६।१) का सम्बन्ध (१७।१) के साथ प्रकरणानुकूल हो जाता है। "मदन्तु देवाः" का सम्बन्ध भी ब्रह्मचारी के साथ उपपन्न है। यथा “तं जातं द्रष्टुमभि संयन्ति देवाः" (अथर्व ११।७।३), अर्थात् उस ब्रह्मचारी को देखने के लिये देव लोग उसकी ओर मिलकर जाते हैं।]
विषय
सौभाग्य की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (बृहस्पते) बृहती, वेदवाणी और बृहत् = विशाल लोकों के स्वामिन् ! (सवितः) सर्वोत्पादक परमेश्वर एवं आचार्य (एनं) इस व्रती ब्रह्मचारी पुरुष की आत्मा को (वर्धय) बढ़ा, शक्तिशाली बना और (एनं) इसे आत्मा को (महते) बड़े (सौभगाय) सौभाग्य, आत्मसम्पत्ति और विद्यासम्पत् प्राप्त करने के लिए (ज्योतय) ज्ञान से प्रकाशित कर। और (संशितं) अच्छी प्रकार तपस्या से सम्पन्न इस ब्रह्मचारी तपस्वी पुरुष को (सं तरं चित्) खूब ही अच्छी प्रकार (सं शिशाधि) शासन कर, शिक्षा दे। जिससे (विश्वे) समस्त (देवाः) ज्ञानी, विद्वान् पुरुष (एनम्) इस विद्वान् ब्रह्मचारी को देख कर (अनु मदन्तु) इसकी सफलता पर प्रसन्न हों। राजा अपने राष्ट्र में विद्वानों को इस प्रकार का आदेश करे। पिता, आचार्य से पुत्र के लिये प्रार्थना करे। आचार्य अपने शिष्य और यजमान के लिये ईश्वर से इसी प्रकार की प्रार्थना करे। इस प्रकार यह मन्त्र उभय पक्ष में लगता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘सन्तराम्’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। सविता देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer for Exaltation
Meaning
O lord of the boundless, protector of the great, Brhaspati, O Savita, all creator, all inspirer, exalt this, enlighten this, this man, this ruler, this human nation, for the achievement of grandeur, prosperity and excellence. Refine and sharpen this devotee to the razor- edge of perfection, and then let all the divinities of nature and brilliancies of humanity be happy and rejoice with all, together.
Subject
Savitr (impeller)
Translation
O Lord supreme, O impeller Lord, may you make him grow, and shine into great all round prosperity. Sharpen him, already sharp, even sharper. May all the enlightened ones revel in his happiness.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.17.1AS PER THE BOOK
Translation
O Lord of the Vedic speech and creator of the Creation or preceptor! make stronger this king or performer of the Yajna or the student and illuminate him for high and happy attainments. Sharpen further the sagacity of this sagacious one and let all the physical and spiritual forces accord him their favors.
Translation
O God, the Lord of the Vedas and vast worlds, the Creator, develop the soul of this Brahmchari, illume his soul with knowledge for high and happy fortune. Instruct thoroughly this austere Brahmchari, so that all the learned persons may be glad at his success!
Footnote
See Yajur, 27-8. Brihaspati, Savita may also refer to the Acharya, the teacher. Brahmchari: He who has taken the vow of celibacy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(बृहस्पते) बृहतां सज्जनानां पालक (सवितः) विद्यैश्वर्ययुक्तोपदेशक (वर्धय) समर्धय (एनम्) राजानम् (ज्योतय) ज्योततेः, ज्वलतिकर्मा-निघ० १।१६। ज्योतिर्वन्तं प्रतापिनं कुरु (एनम्) (महते) विशालाय (सौभगाय) उत्तमैश्वर्यभावाय (संशितम्) शो तनूकरणे-क्त। तीक्ष्णबुद्धिम् (चित्) अपि (संतरम्) समस्तरपि प्रत्यये। अमु च च्छन्दसि। पा० ५।४।१२। इति अम्। अतिशयेन (सम्) सम्यक् (शिशाधि) अ० ४।३१।४। शाधि। शिक्षय (विश्वे) सर्वे (एनम्) (अनु) अनुलक्ष्य (मदन्तु) आनन्दन्तु (देवाः) विद्वांसः सभ्याः ॥
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