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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    इन्द्रो॒तिभि॑र्बहु॒लाभि॑र्नो अ॒द्य या॑वच्छ्रे॒ष्ठाभि॑र्मघवन्छूर जिन्व। यो नो॒ द्वेष्ट्यध॑रः॒ सस्प॑दीष्ट॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ प्रा॒णो ज॑हातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । ऊ॒तिऽभि॑: । ब॒हुलाभि॑: । न॒: । अ॒द्य । या॒व॒त्ऽश्रे॒ष्ठाभि॑: । म॒घ॒ऽव॒न् । शू॒र॒ । जि॒न्व॒ । य: । न॒: । द्वेष्टि॑ । अध॑र: । स: । प॒दी॒ष्ट॒ । यम् । ऊं॒ इति॑ । द्वि॒ष्म: । तम् । ऊं॒ इति॑ । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥३२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रोतिभिर्बहुलाभिर्नो अद्य यावच्छ्रेष्ठाभिर्मघवन्छूर जिन्व। यो नो द्वेष्ट्यधरः सस्पदीष्ट यमु द्विष्मस्तमु प्राणो जहातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । ऊतिऽभि: । बहुलाभि: । न: । अद्य । यावत्ऽश्रेष्ठाभि: । मघऽवन् । शूर । जिन्व । य: । न: । द्वेष्टि । अधर: । स: । पदीष्ट । यम् । ऊं इति । द्विष्म: । तम् । ऊं इति । प्राण: । जहातु ॥३२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (मघवन्) हे बड़े धनी ! (शूर) हे शूर ! (इन्द्र) हे सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले राजन् ! (नः) हमें (अद्य) आज (बहुलाभिः) अनेक (यावच्छ्रेष्ठाभिः) यथासम्भव श्रेष्ठ (ऊतिभिः) रक्षाक्रियाओं से (जिन्व) प्रसन्न कर। (यः) जो (नः) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है, (सः) वह (अधरः) नीचा हो कर (पदीष्ट) चला जावे, (उ) और (यम्) जिससे (द्विष्मः) हम वैर करते हैं, (तम्) उसको (उ) भी (प्राणः) उसका प्राण (जहातु) छोड़ देवे ॥१॥

    भावार्थ

    राजा अपने शूर वीरों सहित यथाशक्ति सब प्रकार के उपायों से शिष्टों का पालन और दुष्टों का निवारण करे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−३।५३।२१ ॥

    टिप्पणी

    १−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (ऊतिभिः) रक्षाक्रियाभिः (बहुलाभिः) अ० ३।१४।६। बहुप्रकाराभिः (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन् दिने (यावच्छ्रेष्ठाभिः) यथासम्भवं प्रशस्यतमाभिः (मघवन्) महाधनिन् (शूर) (जिन्व) जिवि प्रीणने। प्रसादय (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरयति (सः) शत्रुः। विसर्गसकारौ सांहितिकौ (पदीष्ट) पद गतौ आशीर्लिङि। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।२१७। इति सार्वधातुकत्वात्सलोपः, सुट्तिथोः। पा० ३।४।१०७। इति सुडागमः पत्सीष्ट। गम्यात् (यम्) (उ) चार्थे (द्विष्मः) वैरयामः (तम्) (उ) अपि (प्राणः) जीवनहेतुः (जहातु) ओहाक् त्यागे। त्यजतु ॥

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    विषय

    इन्द्र, शूर, मघवा

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले, (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (न:) = हमें (अद्य) = आज (बहुलाभि:) = बहुत (यावत् श्रेष्ठाभि:) = अतिश्रेष्ठ, अधिक से-अधिक श्रेष्ठ (ऊतिभिः) = रक्षणों द्वारा (जिन्व) = प्रीणित कीजिए। हम आपके रक्षणों से रक्षित होते हुए कभी भी शत्रुओं से आक्रान्त न हों। २. (यः) = जो (न: द्वेष्टि) = हमारे प्रति अप्रीति करता है, (स:) = वह (अधर: पदीष्ट) = अधोमुख होकर गिरे, पराजित हो। (उ) = और (यं द्विष्मः) = जिस एक के प्रति हम सब अप्रीतिवाले होते हैं, (तम्) = उसे (उ) = निश्चय से (प्राणः जहातु) = प्राण छोड़ जाए, वह मृत्यु का शिकार हो।

    भावार्थ

    हम उस 'इन्द्र,शूर,मघवा' प्रभु के रक्षण में रक्षित हुए-हुए शत्रुओं से आक्रान्त न हों। जो हम सबके प्रति द्वेष करता है अतएव सबका अप्रिय बनता है, वह अवनत हो व मृत्यु को प्राप्त हो।

    'इन्द्र, शर व मघवा' प्रभु का स्मरण करते हुए द्वेषशन्य होकर,सब प्रकार से आगे बढ़ते हुए हम 'ब्रह्मा' बनते हैं। अगले दो सूक्तों का ऋषि यह 'ब्रह्मा' है -

     

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    भाषार्थ

    (मघवन्, शूर इन्द्र) हे धनवाले और शूर सम्राट! (यावत्) जितने भी (श्रेष्ठाभिः) श्रेष्ठ (बहुलाभिः) और संख्या में बहुत (ऊतिभिः) रक्षा साधनों द्वारा सम्भव हो [उतने रक्षा साधनों द्वारा] (अद्य) आज (नः) हमारी [रक्षा कर] (जिन्व) और हमें प्रीणित अर्थात् प्रसन्न तथा संतुष्ट कर। (यः) जो (नः) हमारे साथ (द्वेष्टि) द्वेष करता है (स) वह (अधर:) नीचे (पदीष्ट) पतित हो, (यमु) और जिसके साथ (द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं (तमु) उसे (प्राणः जहातु) प्राण छोड़ जाय।

    टिप्पणी

    [इन्द्र= सम्राट्, संयुक्त राष्ट्रों का राजा, साम्राज्याधिपति। यथा “इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। अद्य= प्रतिदिन। जिन्व= जिवि प्रीणनार्थः (भ्वादिः)। साम्राज्य में नाना राजाओं के नाना राष्ट्र सम्मिलित होते हैं। जो शत्रुराष्ट्र साम्राज्य के साथ द्वेष करता है, या जिस शत्रुराष्ट्र के साथ बहुसंख्यक हम राजा लोग द्वेष करते हैं, उस राष्ट्र के राजा को प्राणदण्ड देना चाहिये, यह वेदाज्ञा है]।

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    विषय

    अपनी उन्नति और राष्ट्रद्वेषी का क्षय।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! हे (शूर) बलवन् ! शक्तिमन् ! (यावत्-श्रेष्ठाभिः) अति अधिक श्रेष्ठ (बहुलाभिः) नाना प्रकार की (ऊतिभिः) रक्षा करने की विधियों से (नः) हमें (अद्य) आज, सदा ही (जिन्व) जीवित रख, हमारे जीवन की रक्षा कर। और (नः) हमारे राष्ट्र या समाज से (यः) जो व्यक्ति या शत्रु अथवा राष्ट्र (द्वेष्टि) द्वेष करे (सः) वह (अधरः) नीचे ही नीचे (पदीष्ट) चलता चला जावे अर्थात् उसे दण्ड दे। और (यम् उ) जिसको (द्विष्मः) हम सब अप्रिय जानें (तम् उ) उसको (प्राणः जहातु) प्राण छोड़ दे, वह जीवित न रहे अर्थात् उसे तू प्राणदण्ड भी दे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘याच्छ्रेष्ठाभिर्म’ इति य०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। आयुर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-advancement

    Meaning

    Indra, lord of glory, power and force, ruler of the world, energise and vitalise us with the maximum best and highest possible powers of protection and promotion now and always. Whoever hates us must go off and down, and whatever we hate may lose the pranic vitality.

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    Subject

    Indrah

    Translation

    O resplendent Lord, bounteous and brave, with your plentiful finest aids, may you encourage us today. Whoever hastes us, may he succumb; may the life leave him whom we hate.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.32.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O Wealthy, mighty heroic ruler! save my life with all your best possible protective means and powers now, may he who hateth us fall beneath us and let life abandon him whom we detest.

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    Translation

    Rouse us today, O wealthy valiant king, with thy best possible and varied succors. May he who hateth us fall low beneath us, and him whom we detest let life abandon.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (ऊतिभिः) रक्षाक्रियाभिः (बहुलाभिः) अ० ३।१४।६। बहुप्रकाराभिः (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन् दिने (यावच्छ्रेष्ठाभिः) यथासम्भवं प्रशस्यतमाभिः (मघवन्) महाधनिन् (शूर) (जिन्व) जिवि प्रीणने। प्रसादय (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरयति (सः) शत्रुः। विसर्गसकारौ सांहितिकौ (पदीष्ट) पद गतौ आशीर्लिङि। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।२१७। इति सार्वधातुकत्वात्सलोपः, सुट्तिथोः। पा० ३।४।१०७। इति सुडागमः पत्सीष्ट। गम्यात् (यम्) (उ) चार्थे (द्विष्मः) वैरयामः (तम्) (उ) अपि (प्राणः) जीवनहेतुः (जहातु) ओहाक् त्यागे। त्यजतु ॥

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