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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वायुः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वप्राण सूक्त
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    एक॑या च द॒शभि॑श्च सुहुते॒ द्वाभ्या॑मि॒ष्टये॑ विंश॒त्या च॑। ति॒सृभि॑श्च॒ वह॑से त्रिं॒शता॑ च वि॒युग्भि॑र्वाय इ॒ह ता वि मु॑ञ्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑या । च॒ । द॒शभि॑: । च॒ । सु॒ऽहु॒ते॒ । द्वाभ्या॑म् । इ॒ष्टये॑ । विं॒श॒त्या । च॒ । ति॒सृऽभि॑: । च॒ । वह॑से । त्रिं॒शता॑ । च॒ । वि॒युक्ऽभ‍ि॑: । वा॒यो॒ इति॑ । इ॒ह । ता: । वि । मु॒ञ्च॒ ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकया च दशभिश्च सुहुते द्वाभ्यामिष्टये विंशत्या च। तिसृभिश्च वहसे त्रिंशता च वियुग्भिर्वाय इह ता वि मुञ्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकया । च । दशभि: । च । सुऽहुते । द्वाभ्याम् । इष्टये । विंशत्या । च । तिसृऽभि: । च । वहसे । त्रिंशता । च । वियुक्ऽभ‍ि: । वायो इति । इह । ता: । वि । मुञ्च ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुहुते) हे बड़े दानी परमात्मन् ! (इष्टये) हमारी इच्छापूर्ति के लिये (एकया च च दशभिः) एक और दश [ग्यारह], (द्वाभ्यां च विंशत्या) दो और बीस [बाईस], (च) और (तिसृभिः च त्रिंशता) तीन और तीस [तेंतीस] (वियुग्भिः) विशेष योजनाओं के साथ [हमें] (वहसे) तू ले चलता है, (वायो) हे सर्वव्यापक ईश्वर (ताः) उन [योजनाओं] को (इह) यहाँ [हम में] (वि) विशेष करके (मुञ्च) छोड़ दे ॥१॥

    भावार्थ

    (अ) इस मन्त्र में गणितविद्या के संकलन और गुणन का मूल है, जैसे-१+१०=११, २+२०=२२, ३+३०=३३, इत्यादि; तथा ११+११=२२, ११+२२=३३, इत्यादि; तथा ११*१=११, ११*२=२२, ११*३=३३, इत्यादि। (आ) ग्यारह योजनायें शरीर की हैं, अर्थात् दो नासिका, दो श्रोत्र, दो नेत्र, एक मुख, एक पायु, एक उपस्थ, एक नाभि और ब्रह्मरन्ध्र। इसी से शरीर का नाम एकादशपुर भी है। (इ) बाईस योजनायें यह हैं−५ महाभूत+५ प्राण+५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय+१ अन्तःकरण+१ बुद्धि। (ई) तेंतीस योजनायें वा देवता यह हैं−८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः वा प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र; ११ रुद्र अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय, यह दश प्राण और ग्यारहवाँ जीवात्मा; १२ आदित्य अर्थात् महीने, १ इन्द्र अर्थात् बिजुली; १ प्रजापति−ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ६६-६८। आशय यह है−जिस परमात्मा ने शरीर की ग्यारह योजनाओं, बाईस पञ्च भूत आदि और तेंतीस देवताओं द्वारा हमारा उपकार किया है, हम उसी जगदीश्वर की कृपा से इन सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द भोगें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(एकया च दशभिश्च) एकादशभिः शरीरयोजनाभिः (सुहुते) हु दानादानयोः-क्तिन्। हे महादातः परमेश्वर (द्वाभ्यां विंशत्या च) द्वाविंशत्या पञ्चमहाभूतयोजनाभिः (इष्टये) अस्माकमिच्छासिद्धये (तिसृभिश्च त्रिंशता च) त्रयस्त्रिंशता देवतानां योजनाभिः (वहसे) अस्मान्नयसि (वियुग्भिः) युजेः क्विप्। विशेषयोजनाभिः (वायो) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (इह) अत्र। अस्माकं मध्ये (ताः) वियुजः (वि) विशेषेण (मुञ्च) मोचय। स्थापय ॥

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    विषय

    तेतीस बड़वाओं का विमोचन

    पदार्थ

    १.हे (वायो) = आत्मन्! [वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तर शरीरम्]! तू इस शरीर में (सुहते) = जिसमें चारों ओर प्रभु के उत्तम दान विद्यमान हैं, (एकया च दशभिः च) = एक और दस, अर्थात् ११ पृथिवीस्थ देवताओं के अंशों से, (द्वाभ्यां विंशत्या च) = दो और बीस, अर्थात् पृथिवीस्थ और अन्तरिक्षस्थ बाईस देवांशों से (तिसृभिः च त्रिंशता च) = तीन और तीस, अर्थात प्रथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोकस्थ देवताओं से [ये अन्तरिक्ष एकादशस्थ ये पृथिव्यामेकादशस्थ ये दिव्येकादशस्थ०] जो इस शरीररथ की (वियुग्भि:) = [विशेषेण युज्यन्ते रथे] बड़वाएँ हैं, उनसे वहसे इस शरीर-रथ का मार्ग पर वहन करता है। २. तू इसप्रकार इनके द्वारा रथ का वहन कर कि यात्रा को पूर्ण करके (ता:) = उन्हें (इह) = यहाँ ही (विमुञ्च) = खोल देवे । जीवन-यात्रा को पूर्ण कर लेने से उनकी आवश्यकता ही न रह जाए। प्रभु शरीर-रथ को इस यात्रा की पूर्ति के लिए ही तो देते हैं, और इसमें सब देवांशों का स्थापन करते हैं ('सर्वा ह्यस्मिन्देवता गावो गोष्ठ इवासते')। ये देवांश इस शरीर-रथ के घोड़े हैं। यात्रा पूर्ण हुई और ये अनावश्यक हो गये। यही इनका खोल देना है, यही मुक्ति है।

     

    भावार्थ

    इस शरीर-रथ में सर्वत्र प्रभु के अद्भुत दान विद्यमान हैं। इस शरीर-रथ में प्रभु ने तेतीस देवताओं के अंशों को घोड़ियों के रूप में जोता है। इस यात्रा को पूर्ण करके हम इसी जीवन में इन्हें खोलनेवाले बनें।

     

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    भाषार्थ

    (सुहूते) उत्तम आहूतियों को प्राप्त परमेश्वर की प्राप्ति के लिये, (वियुग्भिः) [शरीर-रथ के साथ] विशेषरूप में जुती हुई (एकया च दशभिः च) एक और दस अर्थात् ११ शक्तियों समेत, (च) और (इष्टये) इच्छा की पूर्ति के लिये (द्वाभ्याम्, विशत्या) दो के साथ बीस अर्थात् २२ शक्तियों समेत; (च) और (वहसे) शरीर-रथ के वहन के लिये (तिसृभिः च त्रिंशता च) तीन तथा तीस अर्थात् ३३ शक्तियों समेत (वायो) हे वायुनामक परमेश्वर ! (मैं तेरे प्रति आत्माहुति, आत्मसमर्पण करता हूं) (ताः) उन समग्र शक्तियों को (इह) इस जीवन में (विमुञ्च) मुझ से विमुक्त करदे, छुड़ा दे। (१) सुहुते, इष्टये, वहसे, तीनों पद चतुर्थ्येकवचनान्त हैं। सुहृते = सु + हुत् (हृ, क्विप्, तुक्) +ङे (चतुर्थी विभक्ति का एकवचन)। वहसे = वह + असुन्+ ङे (चतुर्थी विभक्ति का एकवचन)। इष्टये= यह स्पष्टतया चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इन तीनों पदों की चतुर्थी विभक्ति “तुमुन्” अर्थ में है। अतः इन के अर्थ “प्राप्ति के लिये"। तथा "पूर्ति के लिये" किये हैं। यथा "फलाय गच्छति ग्रामम्" का अभिप्राय है "फलानि, आहर्तुम् गच्छति ग्रामम्"। “आहर्तुम्" तुमुन् प्रत्ययान्त है।

    टिप्पणी

    (१) सुहुते, इष्टये, वहसे, तीनों पद चतुर्थ्येकवचनान्त हैं। सुहृते = सु + हुत् (हृ, क्विप्, तुक्) +ङे (चतुर्थी विभक्ति का एकवचन)। वहसे = वह + असुन्+ ङे (चतुर्थी विभक्ति का एकवचन)। इष्टये= यह स्पष्टतया चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इन तीनों पदों की चतुर्थी विभक्ति “तुमुन्” अर्थ में है। अतः इन के अर्थ “प्राप्ति के लिये"। तथा "पूर्ति के लिये" किये हैं। यथा "फलाय गच्छति ग्रामम्" का अभिप्राय है "फलानि, आहर्तुम् गच्छति ग्रामम्"। “आहर्तुम्" तुमुन् प्रत्ययान्त है। (२) "वियुग्भिः" और "विमुञ्च" प्रयोगों द्वारा शरीर-रथ को सूचित किया, जिस के साथ शक्तियों को परमेश्वर ने जोता है, और जिससे उन्हें वह विमुक्त करता है। “इष्टये" द्वारा इच्छा प्रकट की है मोक्ष के लिये, जिसे कि 'विमुञ्च" पद द्वारा विमुक्ति या मुक्ति सूचित की है। (३) एक और दशशक्तियां हैं. १ मन, ५ ज्ञानेन्द्रियां, ५ कर्मेन्द्रियां- ये शरीर रथ के साथ जुती हुई हैं। इन ११ शक्तियों को उपनिषद् में "हय" कहा है। यथा “इन्द्रियाणि हयानाहुः" (कठ० १।३।४)। इसलिये शरीर है रथ, जिस के साथ कि इन्द्रिय-हय अर्थात् अश्व जुते हुए हैं। इसलिये शरीर को रथ कहा है। यथा “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु" ( कठ० १।३।३)। (४) एकादश शक्तियां हैं कारण शरीर की २२ शक्तियां हैं, ११ कारणशरीर की + ११ सूक्ष्म शरीर की। ३३ शक्तियाँ हैं, ११ कारण शरीर की + ११ सूक्ष्म शरीर की + ११ स्थूल शरीर की। ये शक्तियां कारण शरीर में अनभिव्यक्तावस्था में, सूक्ष्मशरीर में सूक्ष्मरूप में, और स्थूलशरीर में पूर्णरूप से अभिव्यक्तावस्था में रहती हैं। शक्तियां तो केवल ११ ही हैं, परन्तु त्रिविध शरीरों में इन की त्रिविध स्थितियों के कारण इन्हें ३३ कहा हैं, ११+११+११=३३। ये ३३ आध्यात्मिक देव हैं, जिन्हें के वैदिक साहित्य में ३३ देवता कहा है। (५) एकया, द्वाभ्याम्, तिसृभिः– द्वारा मन को सूचित किया है। सात्त्विक शक्तिसम्पन्न मन कारण शरीर में, सात्त्विक और राजसिक शक्तियों सम्पन्न मन सूक्ष्मशरीर में तथा सात्त्विक- राजसिक-तामसिक शक्तियों सम्पन्न मन स्थूलशरीर में प्रेरणाएं देता है। (६) विशेषः–मन्त्र में शब्द तो स्पष्ट हैं, परन्तु रहस्यार्थक हैं। इस रहस्य को यथामति मैंने प्रकट किया है। विचारभेद अवश्य सम्भव है। अथर्ववेद (१०।७।२७) के अनुसार ३३ देवों के यथार्थ स्वरूपों को कतिपय वेदवेत्ता या ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। यथा "यस्य त्रयस्त्रिंशद् देवा अङ्गे गात्रा विभेजिरे। तान् वै त्रयस्त्रिंशद् देवानेके ब्रह्मविदो विदुः"।। अतः ३३ देवों के स्वरूप रहस्यमय ही हैं। तथा ३३ देवों का विभाग, ग्यारह-ग्यारह के समूहरूप में, द्यौः, अन्तरिक्ष और पृथिवी में दर्शाया है। यथा "ये देवा दिव्येकादश स्थ"; "ये देवा अन्तरिक्ष एकादश स्थ"; "ये देवाः पृथिव्यामेकादश स्थ" (अथर्व० १९।२७।११,१२,१३)। इसी प्रकार यजुर्वेद में भी ग्यारह-ग्यारह के समूहरूप में ३३ देवों की स्थिति “दिवि, पृथिव्याम्, अप्सु" द्वारा दर्शाई है (७।१९), अप्सु=अन्तरिक्षे। यथा “आपः अन्तरिक्षनाम (निघं० ५।३) “दिव्, अन्तरिक्ष, पृथिवी" आधिदैविक स्थान है ३३ आधिदैविक देवों के। आध्यात्मिक दृष्टि से "कारणशरीर" द्यौः है, "सूक्ष्म शरीर" अन्तरिक्ष है, तथा "स्थूल शरीर" पृथिवी है। तथा इसी प्रकार अध्यात्म दृष्टि से सिर है दिव्, जो कि ज्ञानप्रकाश का स्थान है, छाती है अन्तरिक्ष, जिस में श्वास-प्रश्वास की वायु सदा प्रवाहित होती रहती है, तथा पेट है पृथिवी, जो कि अन्न का स्थान है। वायु= सर्वगति वाला परमेश्वर वा गतिगन्धनयोः (अदादिः), तथा "तदेवाग्निस्तदादित्य स्तद् वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः" (यजु० ३२।१) में परमेश्वर को "वायु" भी कहा है।

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    विषय

    आत्मज्ञान का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (वायो !) देह के प्रेरक, सर्वधारक वायो ! आत्मन्। हे (सु-हुते) उत्तम रूप से अपने को देह में अर्पण करने वाले अथवा अपने को योग द्वारा इष्ट देव में समर्पण करने वाले आत्मन् ! तू (एकया) एक चिति शक्ति से और (दशभिः) दश प्राणों से इस देह को (वह) धारण कर, और इसी प्रकार (द्वाभ्यां) दो प्राण और अपान और (विंशत्या च) उनकी बीस अर्थात् १० सूक्ष्म अर्थात् आभ्यन्तर और १० स्थूल अर्थात् बाह्य शक्तियों से (इष्टये) अपनी इष्टि, इच्छापूर्ति के लिए इस देह को धारण करता है और इसी प्रकार (त्रिंशता) तीस और (तिसृभिः) तीन = ३३ (वि-युग्भिः) विशेषरूप से जुड़ी दिव्य शक्तियों से इस देह को धारण करता है। तू उन सब बन्धनकारिणी प्रवृत्तियों को (इह) इस लोक में (वि मुञ्च) त्याग दें, शिथिल कर दे और मुक्त हो। पंचम सूक्त के भी आत्म देवताक होने से मध्य में पठित चतुर्थ भी यह आत्मदेवताक है ‘वायु’ तो केवल उस प्राणात्मा का बोधक लिङ्ग मात्र है। महान् आत्मा के पक्ष में दश दिशाएं एक महान् प्रकृति, दो अर्थात् महान् और अहंकार, २० वैकारिक तत्व अर्थात् पांच स्थूल भूत, पांच सूक्ष्म भूत, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, ३३ देव अर्थात् ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य इन्द्र और प्रजापति इनका विशेष प्रकार से योग होकर संसार का महान् यज्ञ चल रहा है। प्रलय काल में वही सूत्रात्मा वायु, परमेश्वर उनको नियुक्त करता हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वायुर्देवता। त्रिष्टुप्। एकर्च सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    O Vayu, vibrant all-present Spirit of the universe, nobly worshipped with love and faith, O pranic energy of life, for the realisation of our cherished desire for self-fulfilment, you conduct this body chariot of our earthly existence with one and ten, two and twenty, three and thirty holily yoked horse-powers. Pray release all those here. (Reference may be made to Kathopanishad 1, 1, 3-4, where the human body is called a chariot, the soul, the master, and the senses, the horses, with mind as the driver. Five senses of perception, five senses of volition with mind, the intelligential complex, are the eleven horses. These eleven are doubled and tripled in our course of life: they are purely eleven in the causal body at the sattvic level, they are twenty-two in the subtle body at the sattvic and rajasic levels, and thirty- three in the gross body at the sattvic, rajasic and tamasic levels. When the human has realised its cherished desire for worldly fulfilment, then it prays for freedom from the bonds of the gross body, and for total freedom of Moksha it prays for total freedom from the bonds. Basically, the bonds are eleven, twenty two and thirty three are versions only.)

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    Subject

    Vayu

    Translation

    O omnipresent Lord, you are carried to the sacrifice of good offerings for fulfilling desires by your one and ten, by two and twenty, and by threé and thirty well deployed capabilities. May you release them here.

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    Translation

    O Suhute Vayo! (Well-competent mathematician) please lead us forward to fulfill our desired aims in the various mathematical projects by the process based on one and ten, two and twenty, three and thirty and leave all these results for our good in this exercising process by the methods of subtractions.

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    Translation

    O soul, devoted to God through yoga, thou preservest this body with mental faculty, and ten breaths. Ye are the fulfillment of thy wish, thou preservest the body through two vital breaths, Prana and Apana and twenty other forces. Thou preservest this body with thirty-three well-yoked divine forces. Cast aside all these binding forces in this world, and achieve final Beatitude.

    Footnote

    Final beatitude: Salvation. Ten breaths: Prana, Apana, Vyana, Udana, Samana, Naga, Kurma, Krikla, Deva Dutt, Dhananjya. Twenty: five subtle and five gross elements, five organs of cognition and five organs of action. Thirty-three: Eight vasus. Eleven Rudras, Twelve Adityas, Indra (Electricity), Prajapati (Yajna).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(एकया च दशभिश्च) एकादशभिः शरीरयोजनाभिः (सुहुते) हु दानादानयोः-क्तिन्। हे महादातः परमेश्वर (द्वाभ्यां विंशत्या च) द्वाविंशत्या पञ्चमहाभूतयोजनाभिः (इष्टये) अस्माकमिच्छासिद्धये (तिसृभिश्च त्रिंशता च) त्रयस्त्रिंशता देवतानां योजनाभिः (वहसे) अस्मान्नयसि (वियुग्भिः) युजेः क्विप्। विशेषयोजनाभिः (वायो) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (इह) अत्र। अस्माकं मध्ये (ताः) वियुजः (वि) विशेषेण (मुञ्च) मोचय। स्थापय ॥

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