अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः
देवता - भेषजम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्यानिवारण सूक्त
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जना॑द्विश्वज॒नीना॑त्सिन्धु॒तस्पर्याभृ॑तम्। दू॒रात्त्वा॑ मन्य॒ उद्भृ॑तमी॒र्ष्याया॒ नाम॑ भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठजना॑त् । वि॒श्व॒ऽज॒नीना॑त् । सि॒न्धु॒त: । परि॑ । आऽभृ॑तम् । दू॒रात् । त्वा॒ । म॒न्ये॒ । उत्ऽभृ॑तम् । ई॒र्ष्याया॑: । नाम॑ । भे॒ष॒जम् ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
जनाद्विश्वजनीनात्सिन्धुतस्पर्याभृतम्। दूरात्त्वा मन्य उद्भृतमीर्ष्याया नाम भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठजनात् । विश्वऽजनीनात् । सिन्धुत: । परि । आऽभृतम् । दूरात् । त्वा । मन्ये । उत्ऽभृतम् । ईर्ष्याया: । नाम । भेषजम् ॥४६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईर्ष्या दोष के निवारण का उपदेश।
पदार्थ
[हे भयनिवारक ज्ञान !] (सिन्धुतः) समुद्र [के समान गम्भीर स्वभाववाले] (विश्वजनीनात्) सब जनों के हितकारी (जनात्) उनके पास से (दूरात्) दूर देश से (परि) सब प्रकार (आभृतम्) लाये हुए और (उद्भृतम्) उत्तमता से पुष्ट किये हुए (त्वा) तुझको (ईर्ष्यायाः) दाह का (नाम) प्रसिद्ध (भेषजम्) भयनिवारक औषध (मन्ये) मैं मानता हूँ ॥१॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य बहुमूल्य उत्तम औषध को दूर देश से लाते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग सर्वहितकारी विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करके ईर्ष्या छोड़कर दूसरों की उन्नति में अपनी उन्नति समझें ॥१॥
टिप्पणी
१−(जनात्) लोकात् (विश्वजनीनात्) आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः। पा० ५।१।९। इति ख। सर्वजनहितात् (सिन्धुतः) समुद्र इव गम्भीरस्वभावात् (परि) सर्वतः (आभृतम्) हस्य भः। आहृतम् (दूरात्) दूरदेशात् (त्वा) त्वां भेषजम् (मन्ये) जानामि (उद्भृतम्) उत्तमतया पोषितम् (ईर्ष्यायाः) अ० ६।१८।१। परोत्कर्षासहनतायाः (नाम) प्रसिद्धम् (भेषजम्) भयनिवारकमौषधं ज्ञानमित्यर्थः ॥
विषय
ईर्ष्या-भेषजम्
पदार्थ
१. वस्तुतः 'ज्ञान' [चिन्तन-संसार को तात्त्विक दृष्टि से देखना] ही 'ईर्ष्या' का औषध है। हे ज्ञान ! मैं (त्वा) = तुझे (ईर्ष्यायाः) = ईर्ष्या का (नाम) = झुका देनेवाला, दबा देनेवाला (भेषजम्) = औषध (मन्ये) = मानता हूँ। ज्ञान के द्वारा ईर्ष्या नष्ट हो जाती है। यह ज्ञान (जनात्) = उस पुरुष के जीवन व्यवहार व उपदेश से (पर्याभूतम्) = प्राप्त होता है जो (विश्वजनीनात्) = सबके हित में प्रवृत्त है, तथा (सिन्धुत:) = ज्ञान का समुद्र ही है तथा समुद्र के समान ही गम्भीर होने से 'समुद्र' ही है, [स+मुद्] प्रसन्नता से युक्त-ईर्ष्या,द्वेष व क्रोध से शून्य है। २. हे ज्ञान ! मैं तुझे (दूरात् उद्धृतं मन्ये) = दूर से ही उद्भुत मानता हूँ। यह ज्ञान उस पुरुष के समीप प्राप्त होने पर ही मिलेगा', ऐसी बात नहीं। उस महापुरुष के जीवन का ध्यान करने से ही प्राप्त हो जाता है और हमें भी उस ज्ञानी के समान ईर्ष्या से ऊपर उठने के लिए प्रेरित करता है।
भावार्थ
हम ज्ञान की प्रवृत्तिवाले बनें। ज्ञानी पुरुषों के व्यवहार का चिन्तन करें और "ईया' से ऊपर उठने के लिए यत्नशील हों।
भाषार्थ
(विश्वजनीनात् जनात्) सब जनों का हित करने वाले जन से, तथा (सिन्धुतः परि) सिन्धु से (आभृतम्) लाई गई, तथा (दूरात्) दूर के स्थान से भी (उद्भृतम्) पृथिवी से उद्धृत की गई (त्या) तुझ को (ईर्ष्यायाः) ईर्ष्या का (भेषजम्, नाम) प्रसिद्ध औषध (मन्ये) मैं मानता हूं।
टिप्पणी
[सर्वहितकारी वैद्य से लाई गई ओषधि, या सर्वहितकारी योगी महात्मा से प्राप्त आध्यात्मिक मानसिक अनुशासन; तथा सिन्धु से प्राप्त सैन्धव आदि; तथा पृथिवी को खोदकर प्राप्त खनिज पदार्थ, तथा वानस्पतिक जड़, ईर्ष्यावृत्ति की औषध है। वैद्य से प्राप्त दवाई, या योगी महात्मा से प्राप्त मानसिक अनुशासन, ईर्ष्या को दूर कर सकते हैं। ईर्ष्या मानसिक रोग है जो कि हितकारी वैद्य द्वारा प्रदत्त औषधि से शान्त हो सकता है। यह ईर्ष्या मानसिक-वृत्ति है जो कि अन्य मानसिक वृत्तियों के निरोध के सदृश, योगोपायों द्वारा निरुद्ध हो सकती है, और इस प्रक्रिया को योगीजन दर्शा सकते हैं। ईर्ष्या के निरोध के लिये सिन्धु से, तथा पृथिवी से भी उद्धृत औषधों का प्रयोग करना चाहिये। मन्त्र में किसी विशिष्ट औषध का नाम नहीं लिया। केवल औषध प्राप्ति के उपाय तथा साधन दर्शा दिये हैं। प्रत्येक रोगी के निज स्वभाव तथा मानसिक लक्षणों के अनुसार एक ही रोग के लिये औषधि भिन्न-भिन्न हो जाती है। इसलिये मन्त्रों में प्रायः साधनों का निर्देश किया जाता है किसी विशिष्ट औषध का नहीं।]
विषय
ईर्ष्या के दूर करने का उपाय।
भावार्थ
ईर्ष्या, दाह या दूसरे की उन्नति को देखकर जलने के बुरे स्वभाव को दूर करने के उपाय का उपदेश करते हैं। हे ईर्ष्या दूर करने के उपाय रूप ओषधे ! तू। (ईर्ष्यायाः नाम) ईर्ष्या को झुकाने या दबाने का उत्तम साधन है, इसी से उसका (भेषजम्) इलाज या ईर्ष्या नाम के मानस रोग की उत्तम चिकित्सा है। (त्वा) तुझको मानो (दूरात्) दूर से (उद्-भृतम्) उखाड़ कर लाया गया (मन्ये) मानता हूं। तुझको (विश्व-जनीनात्) समस्त जनों के हितकारी, (सिन्धुतः) नदी या समुद्र के समान विशाल उपकारी, सबके प्रति उदार मनुष्य से (परि आभृतम्) प्राप्त किया जाता है। जब हृदय में ईर्षा के भाव उदय हों उन को दबाने के लिये या दूर करने के लिये उन लोकोपकारी महापुरुषों का ध्यान करना चाहिये जो अपनी सर्वस्व सम्पत्ति को नदी के समान परोपकार में बहा देते हैं। और अपने आप उसका भोग नहीं करते। दूसरे के बढ़ते यश और कीर्ति से न जल कर स्वयं यशस्वी और सच्चे परोपकारी बनें। केवल ईर्ष्या में जलने से कोई बड़ा नहीं हो सकता।
टिप्पणी
पञ्चपटलिकायां द्वयृचं सूक्तम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः। ईर्ष्यापनयनम् भेषजं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। द्वयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Removal of Jealousy
Meaning
From a far off people really interested in the good of humanity, from the sea and people with equally broad mind that far, I believe, you have been brought and developed as a sure cure for jealousy.
Subject
Driving out of Malice (Irsya)
Translation
You have been brought from a land across the ocean inhabited by multiracial-people. Brought from far away as you are, I consider you a remedy for jealousy.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.46.1AS PER THE BOOK
Translation
This plant brought from the river or sea which is opened for all the men and fetched- from afar is, I deam, the balm that cures jealousy.
Translation
Ye twain have conquered, and have not been vanquished not either of the pair hath been defeated, ye, Indra, Vishnu, when ye fight your battle, ye control this entire universe in three ways.
Footnote
Indra means soul. Vishnu means God. Both soul and God fight against sin and vice and establish their sovereignty over the universe. Three ways: High,-medium low places or heaven, firmament and earth. Pt. Khem Karan Das Trivedi interprets Indra as Commander-in-chief and Vishnu as King.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(जनात्) लोकात् (विश्वजनीनात्) आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः। पा० ५।१।९। इति ख। सर्वजनहितात् (सिन्धुतः) समुद्र इव गम्भीरस्वभावात् (परि) सर्वतः (आभृतम्) हस्य भः। आहृतम् (दूरात्) दूरदेशात् (त्वा) त्वां भेषजम् (मन्ये) जानामि (उद्भृतम्) उत्तमतया पोषितम् (ईर्ष्यायाः) अ० ६।१८।१। परोत्कर्षासहनतायाः (नाम) प्रसिद्धम् (भेषजम्) भयनिवारकमौषधं ज्ञानमित्यर्थः ॥
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