यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 3
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - हिरण्यगर्भः परमात्मा देवता
छन्दः - निचृत् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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न तस्य॑ प्रति॒माऽअस्ति॒ यस्य॒ नाम॑ म॒हद्यशः॑।हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भऽइत्ये॒ष मा मा॑ हिꣳसी॒दित्ये॒षा यस्मा॒न्न जा॒तऽइत्ये॒षः॥३॥
स्वर सहित पद पाठन। तस्य॑। प्र॒ति॒मेति॑ प्रति॒ऽमा। अ॒स्ति॒। यस्य॑। नाम॑। म॒हत्। यशः॑ ॥ हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भ इति॑ हिरण्यऽग॒र्भः। इति॑। ए॒षः। मा। मा॑। हि॒ꣳसी॒त्। इति॑। ए॒षा। यस्मा॑त्। न। जा॒तः। इति॑। ए॒षः ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः।हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिꣳसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः॥३॥
स्वर रहित पद पाठ
न। तस्य। प्रतिमेति प्रतिऽमा। अस्ति। यस्य। नाम। महत्। यशः॥ हिरण्यगर्भ इति हिरण्यऽगर्भः। इति। एषः। मा। मा। हिꣳसीत्। इति। एषा। यस्मात्। न। जातः। इति। एषः॥३॥
विषय - (सिद्धान्त खण्ड) मूर्ति पूजा
शब्दार्थ -
(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिनिधि, मापक, परिमाण (न अस्ति) नहीं है (एष: हिरण्यगर्भ: इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से वह हिरण्यगर्भ है । (मा मा हिंसीत् इति एषा) ‘मेरी हिंसा मत कर’ ऐसी प्रार्थना उसी से की जाती है (यस्मात् न जातः इति एष:) ‘जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ’ ऐसा जो प्रसिद्ध है - उस परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है।
भावार्थ - ईश्वर का सामर्थ्य महान् व उसका यश भी महान् है । ‘हिरण्यगर्भ:’ यजु० २५ । १०-१३ में जिसका वर्णन है । ‘यस्मान्न जात:’ यजु० ८। ३६ में जिसका गुण-गान है । ‘मा मा हिंसीत् ‘ यजु० १२ । १०२ में जिसका चित्रण है । वह प्रभु बहुत महान् है । वह संसार के सभी चमकीले पदार्थों को अपने गर्भ में धारण कर रहा है। संसार में उस जैसा कोई न आज तक उत्पन्न हुआ है और न भविष्य में होगा । विपत्ति और कष्टों में मनुष्य उसी परमात्मा को पुकारते हैं । ऐसे गुणागार, कृपासिन्धु, महान् एवं व्यापक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है। जब परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है तब मूर्तिपूजा अवैदिक है। भागवत १० । ८४ । १३ के अनुसार मूर्तिपूजक ‘गोखर’ गौओं का चारा ढोनेवाला गधा है ।
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