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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 42

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिरा देवता - मन्युः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - परस्परचित्तैदीकरण सूक्त

    अव॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नो म॒न्युं त॑नोमि ते हृ॒दः। यथा॒ संम॑नसौ भू॒त्वा सखा॑याविव॒ सचा॑वहै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑न: । म॒न्युम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । हृ॒द: । यथा॑ । सम्ऽम॑नसौ । भू॒त्वा । सखा॑यौऽइव । सचा॑वहै ॥४२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः। यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । ज्याम्ऽइव । धन्वन: । मन्युम् । तनोमि । ते । हृद: । यथा । सम्ऽमनसौ । भूत्वा । सखायौऽइव । सचावहै ॥४२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 42; मन्त्र » 1

    Bhajan -

     वैदिक मन्त्र
    अव ज्यामिव धन्वनो, मन्युं तनोमि ये हृद:
    यथा संमनसौ भूत्वा, सखायाविव सचावहै

                  वैदिक अजय १०९४वां
                    राग जयजयवंती
      गायन समय मध्य रात्रि की दूसरा प्रहर
                ताल दादरा ६ मात्रा
                         भाग १
    आ गले मिले अभी 
    प्रेम-व्यवहार छा रहा 
    क्या हुआ था भ्रात मेरे 
    ईर्ष्या द्वेष लगा रहा(२)
    आ गले..........
    इक दिन दोनों के बीच में 
    वातावरण कलह का था
    कुछ भी तो ना सुहाता था
    एक दूजे की समृद्धि में 
    मन में जलन सी उठती थी 
    क्या कोरी मूर्खता ना थी ?
    यही तो थी 
    ज़रा सी बातों पर लड़े,
    दूर फासला रहा।।
    क्या हुआ.........
    ये भान मुझको अब हुआ
    मैं पश्चाताप कर रहा
    आपस में क्यों बिछड़ गए?
    क्यों अहंकार जाग उठा?
    और मैत्री भाव जा मिटा
    क्यों निष्काम भाव विचर गए?
    हम थे दो तन, एक हृदय 
    कौतुहल-मन ना रहा
    क्या हुआ.......
    आ गले.........
                शब्दार्थ अन्त में
                      भाग २
    आ गले मिले अभी 
    प्रेम व्यवहार छा रहा 
    क्या हुआ था भ्रात मेरे 
    ईर्ष्या- द्वेष लगा रहा।।
    आ गले.........
    आपस में थी घनिष्ठता
    कोई भी मनमुटाव ना था 
    वह सच्चे भ्राता तुम ही तो थे 
    यदि चोट मुझको लगती थी 
    और दर्द तुमको होता था
    तुम विचलित मेरी हानि में थे
    जब पुरस्कार मिलता था 
    तेरा मन सम्मानित होता रहा
    क्या हुआ.........
    अरे वाह रे ! आज क्या बात है 
    मेरा क्रोध शान्त हो रहा
    यह कोप-कमान तनी सी थी
    निश्चिन्त्य हो चुका हूं मैं
    सोया विवेक जाग उठा
    वह कलह कालिमा हटी
    वह द्वेष दीवार तोड़ दी 
    ना शिकवा ना गिला रहा।।
    क्या हुआ..........
    निश्चय मुझे अब हो गया 
    अब क्रोध द्वेष भी खो गया
    अब हो जाऊंगा मैं सरल
    ना होगा प्रभु का प्रेम-सरल
    जो पीता रहूंगा द्वेष- गरल
    घर-घाट से रहूंगा विफल
    आओ मित्र गले मिलें
    द्वेष पे प्रेम विजयी रहा।।
    क्या हुआ.........
              शब्दार्थ:-(अन्त में)
    भ्रात=भाई
    विचर=भूला हुआ
    कौतुहल=उत्सुकता
    घनिष्ठता=अत्यधिक मित्रता
    मनमुटाव=मन में बुरे भाव आना
    विचलित=अस्थिर, चंचल
    कोप=गुस्सा क्रोध
    निश्चिन्त्य=चिन्ता रहित
    विवेक=भले बुरे का ज्ञान, समझ 
    गिला शिकवा=विलाप,नाराज़गी
    गरल=जहर, विष
    विफल=असफल, फलहीन
    🕉🧘‍♂️
    द्वितीय श्रृंखला का ८७ वां वेदिक भजन  और अब तक का १०९४ वां वैदिक भजन। 
    श्रोताओं का हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं❗🙏

    Vyakhya -

    आ, फिर मैत्री कर लें

    हे भाई ! आज हम दोनों फिर गले मिल लें। एक दिन मेरे और तेरे मध्य कलह हो गया था। तब से हम दोनों कटर शत्रु बन गए थे। तू मुझे देखे न सुहाता था, और मैं तुझे देखें सुहाता था। हम दोनों ही एक दूसरे की समृद्धि को ना देख सकते थे किन्तु आज मुझे प्रत्यक्ष दीख रहा है कि वह सब हम दोनों की कोरी मूर्खता थी।
    अहो ! उस दिन साधारण सी बात पर हम परस्पर रुष्ट हो गए थे और तब से आज तक एक दूसरे से कितने अधिक दूर हो चुके हैं। आज मुझे उन पहली बातों को स्मरण करके असीम पश्चाताप हो रहा है, इसलिए इतने अरसे बिछुडे रहने के बाद आज मैं तेरे पास मैत्री का प्रस्ताव लेकर आया हूं मेरे भाई ! आज से हम दोनों एक मन हो जाएं।
    तेरे साथ हुए मनमुटाव से पूर्व की मित्रता भी आज मेरे स्मृति-पटल पर उभर रही है। हम कैसे परस्पर दो तक एक हृदय बने हुए थे। उन दिनों की याद भी मन में कौतुहल उत्पन्न करती है। हम दोनों की आपस में ऐसी घनिष्ठता थी कि चोट मुझे लगती थी, दर्द तुझे होता था, ज्वर मुझे चढ़ता था, शरीर तेरा तप्त होता था।व्यापार में हानि मुझे होती की दिवाला तेरा निकलता था, खेती मेरी सुखती थी, गोदाम तेरा खाली होता था; शाबाशी मुझे मिलती थी, हृदय तेरा बल्लियों उछलता था; पुरस्कार मुझे मिलता था, सम्मानित तू होता था। क्या वह प्रीति आखिर लौटकर नहीं आ सकती ?
    अरे, यह क्या? यद्यपि मेरा क्रोध शान्त हो गया है, तो भी तेरी कोप की कमाल तनी हुई है। पर, आज तो मैं निश्चय करके आया हूं कि तुझे अपना बना कर ही छोडूंगा, क्योंकि मैंने स्पष्ट देख दिया है कि इस कलह के कारण हम दोनों का ही सर्वनाश हुआ जा रहा है। अभी भले ही तेरे ह‌दय की कमान क्रोध की प्रत्यंचा से तनी हुई है, किन्तु मुझे निश्चय है कि मैं अपने प्रेम के व्यवहार द्वारा तेरी क्रोध की डोरी को उतार दूंगा। तब तेरा हृदय स्वयमेव मेरे प्रति सरल हो जाएगा, जैसे धनुष की डोरी उतार देने पर धनुर्दंड
    सरल (सीधा) हो जाता है। आ मेरे भाई !
    हम दोनों प्रेम पूर्ण मन से दो मित्रों के समान परस्पर मिले और इसका दृष्टांत उपस्थित करें कि प्रेम निश्चय ही द्वेष पर विजय पाता है।
     

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