अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - प्राजापत्या गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
अन्त॑कोऽसिमृ॒त्युर॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअन्त॑क: । अ॒सि॒ । मृ॒त्यु : । अ॒सि॒ ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तकोऽसिमृत्युरसि ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तक: । असि । मृत्यु : । असि ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
विषय - आलस्यादिदोष के त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थ -
तू (अन्तकः) अन्तकरनेवाला (असि) है और तू (मृत्युः) मृत्यु [के समान दुःखदायी] (असि) है ॥२॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! कुपश्यआदि करने से गठिया आदि रोग होते हैं, गठिया आदि से आलस्य और उससे अनेकविपत्तियाँ मृत्यु आदि होती हैं। इससे सब लोग दुःखों के कारण अति निद्रा आदि कोखोजकर निकालें और केवल परिश्रम की निवृत्ति के लिये ही उचित निद्रा का आश्रयलेकर सदा सचेत रहें ॥१-३॥
टिप्पणी -
२−(अन्तकः) अन्तणिच्-ण्वुल्। अन्तयतीति अन्तकः। अन्तकरः (असि) (मृत्युः) मृत्युरिव दुःखप्रदः (असि) ॥