अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 19/ मन्त्र 11
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुब्गर्भा पङ्क्तिः
सूक्तम् - शर्म सूक्त
प्र॒जाप॑तिः प्र॒जाभि॒रुद॑क्राम॒त्तां पुरं॒ प्र ण॑यामि वः। तामा वि॑शत॒ तां प्र वि॑शत॒ सा वः॒ शर्म॑ च॒ वर्म॑ च यच्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒ऽजाभिः॑। उत्। अ॒क्रा॒म॒त्। ताम्। पुर॑म्। प्र। न॒या॒मि॒। वः॒। ताम्। आ। वि॒श॒त॒। ताम्। प्र। वि॒श॒त॒। सा। वः॒। शर्म॑। च॒। वर्म॑। च॒। य॒च्छ॒तु॒ ॥१९.११॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिः प्रजाभिरुदक्रामत्तां पुरं प्र णयामि वः। तामा विशत तां प्र विशत सा वः शर्म च वर्म च यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपतिः। प्रऽजाभिः। उत्। अक्रामत्। ताम्। पुरम्। प्र। नयामि। वः। ताम्। आ। विशत। ताम्। प्र। विशत। सा। वः। शर्म। च। वर्म। च। यच्छतु ॥१९.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 19; मन्त्र » 11
विषय - रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ -
(प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक मनुष्य] (प्रजाभिः) प्रजाओं के साथ (उत् अक्रामत्) ऊँचा चढ़ा है, (ताम्) उस (पुरम्) अग्रगामिनी शक्ति की ओर (वः) तुम्हें (प्र) आगे (नयामि) लिये चलता हूँ। (ताम्) उस [शक्ति] में (आ विशत) तुम घुस जाओ, (ताम्) उसमें (प्र विशत) तुम भीतर जाओ, (सा) वह [शक्ति] (वः) तुम्हें (शर्म) सुख (च च) और (वर्म) कवच [रक्षासाधन] (यच्छतु) देवे ॥११॥
भावार्थ - प्रजापालक पुरुष उत्तम सन्तानों और जनताओं के साथ आगे बढ़ते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को परस्पर सहाय करके सबकी उन्नति से अपनी उन्नति करनी चाहिये ॥११॥
टिप्पणी -
११−(प्रजापतिः) प्रजापालकः पुरुष (प्रजाभिः) सन्तानैः। जनताभिः। अन्यद् गतम् ॥