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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - जातवेदा सूक्त

    दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षा॒द्वन॒स्पति॑भ्यो॒ अध्योष॑धीभ्यः। यत्र॑यत्र॒ विभृ॑तो जा॒तवे॑दा॒स्तत॑ स्तु॒तो जु॒षमा॑णो न॒ एहि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। अ॒न्तरि॑क्षात्। वन॒स्पति॑ऽभ्यः। अधि॑। ओष॑धीभ्यः। यत्र॑ऽयत्र। विऽभृ॑तः। जा॒तऽवे॑दाः। ततः॑। स्तु॒तः। जु॒षमा॑णः। नः॒। आ। इ॒हि॒ ॥३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाद्वनस्पतिभ्यो अध्योषधीभ्यः। यत्रयत्र विभृतो जातवेदास्तत स्तुतो जुषमाणो न एहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः। पृथिव्याः। परि। अन्तरिक्षात्। वनस्पतिऽभ्यः। अधि। ओषधीभ्यः। यत्रऽयत्र। विऽभृतः। जातऽवेदाः। ततः। स्तुतः। जुषमाणः। नः। आ। इहि ॥३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से, (अन्तरिक्षात् परि) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] में से, (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों [पीपल आदि वृक्षों] से और (ओषधीभ्यः अधि) ओषधियों [अन्न सोमलता आदिकों] में से, और (यत्रयत्र) जहाँ-जहाँ (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान तू [अग्नि] (विभृतः) विशेष करके धारण किया गया है, (ततः) वहाँ से (स्तुतः) स्तुति किया गया [काम में लाया गया] और (जुषमाणः) प्रसन्न करता हुआ तू (नः) हमको (आ) आकर (इहि) प्राप्त हो ॥१॥

    भावार्थ - सब मनुष्य अग्नि, बिजुली, धूप आदि को सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष, वनस्पतियों, ओषधियों अन्य पदार्थों से ग्रहण करके शरीर की पुष्टि और शिल्पविद्या की उन्नति करें ॥१॥

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