Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आत्मा
छन्दः - एकावसानैकपदा ब्राह्म्यनुष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
अयु॑तो॒ऽहमयु॑तो म आ॒त्मायु॑तं मे॒ चक्षु॒रयु॑तं मे॒ श्रोत्र॑मयु॑तो मे प्रा॒णोऽयु॑तो मेऽपा॒नोऽयु॑तो मे व्या॒नोऽयु॑तो॒ऽहं सर्वः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑तः। अ॒हम्। अयु॑तः। मे॒। आ॒त्मा। अयु॑तम्। मे॒। चक्षुः॑। अयु॑तम्। मे॒। श्रोत्र॑म्। अयु॑तः। मे॒। प्रा॒णः। अयु॑तः। मे॒। अ॒पा॒नः। मे॒। वि॒ऽआ॒नः। अयु॑तः। अ॒हम्। सर्वः॑ ॥५१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुतोऽहमयुतो म आत्मायुतं मे चक्षुरयुतं मे श्रोत्रमयुतो मे प्राणोऽयुतो मेऽपानोऽयुतो मे व्यानोऽयुतोऽहं सर्वः ॥
स्वर रहित पद पाठअयुतः। अहम्। अयुतः। मे। आत्मा। अयुतम्। मे। चक्षुः। अयुतम्। मे। श्रोत्रम्। अयुतः। मे। प्राणः। अयुतः। मे। अपानः। मे। विऽआनः। अयुतः। अहम्। सर्वः ॥५१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
विषय - आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ -
(अहम्) मैं (अयुतः) अनिन्दित [प्रशंसायुक्त] [होऊँ] (मे) मेरा (आत्मा) आत्मा [जीवात्मा] (अयुतः) अनिन्दित, (मे) मेरी (चक्षुः) आँख (अयुतम्) अनिन्दित, (मे) मेरा (श्रोत्रम्) कान (अयुतम्) अनिन्दित, (मे) मेरा (प्राणः) प्राण [भीतर जानेवाला श्वास] (अयुतः) अनिन्दित, (मे) मेरा (अपानः) अपान [बाहिर जानेवाला श्वास] (अयुतः) अनिन्दित, (मे) मेरा (व्यानः) व्यान [सब शरीर में घूमनेवाला वायु] (अयुतः) अनिन्दित [होवे], (सर्वः) सबका सब (अहम्) मैं (अयुतः) अनिन्दित [होऊँ] ॥१॥
भावार्थ - जो मनुष्य अपने-आप, अपने आत्मा, अपने इन्द्रियों, अपने अङ्गों और अपने सर्वस्व से सदा प्रशंसनीय कर्म करते हैं। वे ही आत्मोन्नति कर सकते हैं ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अयुतः) यु निन्दायाम्, चुरादिः-क्त। अनिन्दितः। प्रशंसितः (अहम्) (मे) मम (आत्मा) जीवात्मा (चक्षुः) दर्शनेन्द्रियम् (श्रोत्रम्) श्रवणेन्द्रियम् (प्राणः) शरीराभ्यन्तरगामी वायुः (अपानः) शरीराद् बहिर्गामी वायुः (व्यानः) सर्वशरीरव्यापको वायुः (सर्वः) समस्तः। अन्यद् गतं स्पष्टं च ॥