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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
यद्वो॑ व॒यं प्र॑मि॒नाम॑ व्र॒तानि॑ वि॒दुषां॑ देवा॒ अवि॑दुष्टरासः। अ॒ग्निष्टद्वि॒श्वादा पृ॑णातु वि॒द्वान्त्सोम॑स्य॒ यो ब्रा॑ह्म॒णाँ आ॑वि॒वेश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। वः॒। व॒यम्। प्र॒ऽमि॒नाम॑। व्र॒तानि॑। वि॒दुषा॑म्। दे॒वाः॒। अवि॑दुःऽतरासः। अ॒ग्निः। तत्। वि॒श्व॒ऽअत्। आ। पृ॒णा॒तु॒। वि॒द्वान्। सोम॑स्य। यः। ब्रा॒ह्म॒णान्। आ॒ऽवि॒वेश॑ ॥५९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वो वयं प्रमिनाम व्रतानि विदुषां देवा अविदुष्टरासः। अग्निष्टद्विश्वादा पृणातु विद्वान्त्सोमस्य यो ब्राह्मणाँ आविवेश ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। वः। वयम्। प्रऽमिनाम। व्रतानि। विदुषाम्। देवाः। अविदुःऽतरासः। अग्निः। तत्। विश्वऽअत्। आ। पृणातु। विद्वान्। सोमस्य। यः। ब्राह्मणान्। आऽविवेश ॥५९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
विषय - उत्तम मार्ग पर चलने का उपदेश।
पदार्थ -
(देवाः) हे विद्वानो ! (यत्) यदि (अविदुष्टरासः) निपट अजान (वयम्) हम (वः विदुषाम्) तुम विद्वानों के (व्रतानि) नियमों को (प्रमिनाम) तोड़ डालें। (विश्वात्) सबका प्रबन्ध करनेवाला (अग्निः) [वह] अग्नि [ज्ञानवान् परमेश्वर] (तत्) उसको (आ पृणातु) पूरा कर देवे, (यः) जिस (सोमस्य) ऐश्वर्य के (विद्वान्) जानकार [परमेश्वर] ने (ब्राह्मणान्) ब्राह्मणों [ब्रह्मज्ञानियों] में (आविवेश) प्रवेश किया है ॥२॥
भावार्थ - जो मनुष्य अज्ञानी होकर दोष करें, वे विद्वानों के सत्सङ्ग से परमात्मा की उपासनापूर्वक अपने दोषों को हटावें ॥२॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।२।४ और चौथा पाद कुछ भेद से आ चुका है-अ० १८।३।५५ ॥ २−(यत्) यदि (वः) युष्माकम् (वयम्) (प्रमिनाम) मीञ् हिंसायाम्-लोट्। मीनातेर्निगमे। पा० ७।३।८१। इति ह्रस्वः। प्रकर्षेण हिनसाम विनाशयाम (व्रतानि) कर्माणि (विदुषाम्) जानताम् (देवाः) हे विद्वांसः (अविदुष्टरासः) अत्यर्थम् अविद्वांसः (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (तत्) (विश्वात्) अत सातत्यगमने बन्धने च-क्विप्। सर्वप्रबन्धकः (आ) समन्तात् (पृणातु) पूरयतु (विद्वान्) ज्ञानवान् (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (यः) परमेश्वरः (ब्राह्मणान्) ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषान् (आविवेश) प्रविष्टवान् ॥