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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - द्यावापृथिवी, ब्रह्म, निर्ऋतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त

    क्षे॑त्रि॒यात्त्वा॒ निरृ॑त्या जामिशं॒साद्द्रु॒हो मु॑ञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॑त्। अ॑ना॒गसं॒ ब्रह्म॑णा त्वा कृणोमि शि॒वे ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्षे॒त्रि॒यात् । त्वा॒ । नि:ऽऋ॑त्या: । जा॒मि॒ऽशं॒सात् । द्रु॒ह:। मु॒ञ्चा॒मि॒ । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । अ॒ना॒गस॑म् । ब्रह्म॑णा । त्वा॒ । कृ॒णो॒मि॒ । शि॒वे इति॑ । ते॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । स्ता॒म् ॥१०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षेत्रियात्त्वा निरृत्या जामिशंसाद्द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षेत्रियात् । त्वा । नि:ऽऋत्या: । जामिऽशंसात् । द्रुह:। मुञ्चामि । वरुणस्य । पाशात् । अनागसम् । ब्रह्मणा । त्वा । कृणोमि । शिवे इति । ते । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । स्ताम् ॥१०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 10; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे पुरुष !] (त्वा) तुझको (क्षेत्रियात्) शरीर वा वंश के रोग से, (निर्ऋत्याः) अलक्ष्मी [महामारी दरिद्रता आदि] से, (जामिशंसात्) भक्षणशील मूर्ख के सताने से, (द्रुहः) द्रोह [अनिष्ट चिन्ता] से और (वरुणस्य) दुष्कर्मों से रोकनेवाले न्यायाधीश के (पाशात्) दण्डपाश वा बन्ध से (मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूँ। (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से (त्वा) तुमको (अनागसम्) निर्दोष (कृणोमि) करता हूँ, (ते) तेरेलिये (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी=०–व्यौ) आकाश और पृथिवी (शिवे) मङ्गलमय (स्ताम्) होवें ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य वेदज्ञान-प्राप्ति से ऐसा प्रयत्न करे कि आत्मिक, शारीरिक और दैवी विपत्तियों और मूर्खों के दुष्ट आचरणों से पृथक् रहे और न कभी कोई पाप करे, जिससे परमेश्वर वा राजा उसे दण्ड न देवे, किन्तु सुशीलता के कारण संसार के सब पदार्थ आनन्दकारी हों ॥१॥

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