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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    सूक्त - चातनः देवता - शालाग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त

    निः॑सा॒लां धृ॒ष्णुं धि॒षण॑मेकवा॒द्यां जि॑घ॒त्स्व॑म्। सर्वा॒श्चण्ड॑स्य न॒प्त्यो॑ ना॒शया॑मः स॒दान्वाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒:ऽसा॒लाम् । धृ॒ष्णुम्। धि॒षण॑म् । ए॒क॒ऽवा॒द्याम् । जि॒घ॒त्ऽस्व᳡म् । सर्वा॑: । चण्ड॑स्य । न॒प्त्य᳡: । ना॒शया॑म: । स॒दान्वा॑: ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निःसालां धृष्णुं धिषणमेकवाद्यां जिघत्स्वम्। सर्वाश्चण्डस्य नप्त्यो नाशयामः सदान्वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि:ऽसालाम् । धृष्णुम्। धिषणम् । एकऽवाद्याम् । जिघत्ऽस्वम् । सर्वा: । चण्डस्य । नप्त्य: । नाशयाम: । सदान्वा: ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (निः सालाम्) विना साला वा घरवाली, (धृष्णुम्) भयानक रूपवाली, (एकवाद्याम्) [दीनता का] एक वचन बोलनेवाली, (धिषणम्) बोध वा उत्तम वाणी को (जिघत्स्वम्) खा लेनेवाली, (चण्डस्य) क्रोध की (सर्वाः) इन सब (नप्त्यः= नप्त्रीः) सन्तानों, (सदान्वाः) सदा चिल्लानेवाली यद्वा, दानवों, दुष्कर्मियों के साथ रहनेवाली [निर्धनता की पीड़ाओं] को (नाशयामः) हम मिटा देवें ॥१॥

    भावार्थ - निर्धनता के कारण मनुष्य घर से निकल जाता, कुरूप हो जाता, दीन वचन बोलता और मतिभ्रष्ट हो जाता है और निर्धनता की पीड़ाएँ क्रोध अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुष्टताओं से उत्पन्न होती हैं। मनुष्य को चाहिये कि दूरदर्शी होकर पुरुषार्थ से धन प्राप्त करके निर्धनता को न आने दे और सदा सुखी रहे ॥१॥ ऋग्वेद म० १०। सू० १५५। म० १। में ऐसा वर्णन है। अरा॑यि॒ काणे॒ विक॑टे गि॒रिं ग॑च्छ सदान्वे। शि॒रिम्बि॑ठस्य॒ सत्त्व॑भि॒स्तेभि॑ष्ट्वा चातयामसि ॥१॥ (अरायि) हे अदानशील [कंजूसिनि] ! (काणे) हे कानी ! (विकटे) हे लंगड़ी ! (सदान्वे=सदानोनुवे शब्दकारिके) सदा चिल्लानेवाली ! (गिरिम्) पहाड़ को (गच्छ) चली जा ! (शिरिम्बिठस्य) मेघ के (तेभिः) उन (सत्त्वभिः) जलों से (त्वा) तुझे (चातयामसि) हम मिटाये देते हैं ॥ इस ऋग्वेदमन्त्र की व्याख्या निरु० ६।३०। में है। उसके और निरुक्तटीकाकार देवराज यज्वा के आधार पर यहाँ अर्थ किया है ॥

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