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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अग्ने॒ यत्ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । यत् । ते॒ । तप॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । त॒प॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥१९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यत्ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । यत् । ते । तप: । तेन । तम् । प्रति । तप । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥१९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अग्ने) हे अग्नि [अग्नि पदार्थ] (यत्) जो (ते) तेरा (तपः) प्रताप [ऐश्वर्य] है, (तेन) उससे (तम् प्रति) उस [दोष] पर (तप) प्रतापी हो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करता है, [अथवा] (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करते हैं ॥१॥

    भावार्थ - दुराचारी, कामी, क्रोधी आदि पुरुष की मति भ्रष्ट हो जाती है और कुप्रयोग से शारीरिक और बाह्य अग्नि दुःखदायी होती और वही अग्नि सुप्रयोग से विचारशील सदाचारियों को सुखप्रद होती है। ऐसा ही आगे समझना चाहिये ॥१॥ ऐसा कहा भी है– गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ॥ गुण, गुणवान् को प्राप्त करके निखर उठते हैं, परन्तु वही निर्गुणी को पाकर दोष हो जाते हैं ॥

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