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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    दश॑वृक्ष मु॒ञ्चेमं रक्ष॑सो॒ ग्राह्या॒ अधि॒ यैनं॑ ज॒ग्राह॒ पर्व॑सु। अथो॑ एनं वनस्पते जी॒वानां॑ लो॒कमुन्न॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दश॑ऽवृक्ष । मु॒ञ्च । इ॒मम् । रक्ष॑स: । ग्राह्या॑: । अधि॑ । या । ए॒न॒म्। ज॒ग्राह॑ । पर्व॑ऽसु । अथो॒ इति॑ । ए॒न॒म् । व॒न॒स्प॒ते॒ । जी॒वाना॑म् । लो॒कम् । उत् । न॒य॒ ॥९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दशवृक्ष मुञ्चेमं रक्षसो ग्राह्या अधि यैनं जग्राह पर्वसु। अथो एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दशऽवृक्ष । मुञ्च । इमम् । रक्षस: । ग्राह्या: । अधि । या । एनम्। जग्राह । पर्वऽसु । अथो इति । एनम् । वनस्पते । जीवानाम् । लोकम् । उत् । नय ॥९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (दशवृक्ष) हे प्रकाशवाले वा दर्शनीय विद्वानों के क्लेश काटनेवाले वा स्वीकार करनेवाले, अथवा, हे दस दिशाओं में सेवनीय परमेश्वर ! (इमम्) इस पुरुष को (रक्षसः) राक्षस [दुष्ट अज्ञान] की (ग्राह्याः) जकड़नेवाली पीड़ा [गठिया रोग] से (अधि) सर्वथा (मुञ्च=मोचय) छुड़ा दे, (या) जिस [पीड़ा] ने (एनम्) इस [पुरुष] को (पर्वसु) सब जोड़ों में (जग्राह) पकड़ लिया है। (अथो) और (वनस्पते) हे वननीय, सेवनीय सत्पुरुषों के पति [रक्षक] ! (एनम्) इस [पुरुष] को (जीवानाम्) जीवधारियों के [लोकम्] संसार में (उन्नय) ऊँचा उठा ॥१॥

    भावार्थ - सब चर और अचर के सेवनीय और सत्पुरुषों के रक्षक परमेश्वर के उपकारों पर दृष्टि करके मनुष्य अपने शारीरिक और मानसिक क्लेशों और विघ्नों को हटाकर सदा अपनी उन्नति करे ॥१॥ १–सायणभाष्य में (दशवृक्ष) पद का अर्थ–“पलाश, उदुम्बर आदि दश वृक्षों के खण्डों से बनाई हुई मणि”–किया है ॥ २–ऐसा ही प्रयोग अथर्ववेद ३।११।१। में आया है। ग्राहि॑र्ज॒ग्राह यद्ये॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्रमु॑मुक्तमेनम्। (यदि) जो (एतद्) इस समय (एनम्) इस पुरुष को (ग्राहिः) जकड़नेवाली पीड़ा ने (जग्राह) पकड़ लिया है, (इद्राग्नी) हे सूर्य और अग्नि [के समान तेजस्वी विद्वान्] (तस्याः) उस [पीड़ा] से (एनम्) इस पुरुष को (प्रमुमुक्तम्) तुम छुड़ाओ ॥

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