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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 111/ मन्त्र 3
यद्वासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धो यज॑मानस्य सत्पते। उ॒क्थे वा॒ यस्य॒ रण्य॑सि॒ समिन्दु॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । असि॑ । सु॒न्व॒त: । वृ॒ध: । यज॑मानस्य । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥ उ॒क्थे । वा॒ । यस्य॑ । रण्य॑सि । सम् । इन्दु॑ऽभि: ॥१११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वासि सुन्वतो वृधो यजमानस्य सत्पते। उक्थे वा यस्य रण्यसि समिन्दुभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । असि । सुन्वत: । वृध: । यजमानस्य । सत्ऽपते ॥ उक्थे । वा । यस्य । रण्यसि । सम् । इन्दुऽभि: ॥१११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 111; मन्त्र » 3
विषय - मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(शक्र) हे शक्तिमान् ! (मनुष्य) (यत् वा) अथवा (परावति) बहुत दूरवाले (समुद्रे) समुद्र [जलनिधि वा आकाश] में (अधि) अधिकारपूर्वक (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ [तत्त्व रस को] (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू हर्षयुक्त करता है, (सत्पते) हे सत्पुरुषों के स्वामी ! (यत् वा) जब कि तू (सुन्वतः) उस तत्त्वरस निचोड़नेवाले (यजमानस्य) यजमान का (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है, (यस्य) जिस [यजमान] के (उक्थे) वचन में (वा) निश्चय करके (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सम्) ठीक-ठीक (रण्यसि) तू उपदेश करता है, [तब] (अस्माकम् इत्) हमारे भी (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (रण) उपदेश कर ॥२, ३॥
भावार्थ - मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥
टिप्पणी -
३−(यत् वा) अथवा (असि) (सुन्वतः) तत्त्वरसं निष्पादयतः पुरुषस्य (वृधः) वर्धयिता। (यजमानस्य) (सत्पते) सतां पालक (उक्थे) वचने (वा) अवधारणे (यस्य) यजमानस्य (रण्यसि) उपदिशसि (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥