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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 125

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 125/ मन्त्र 3
    सूक्त - सुर्कीतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२५

    न॒हि स्थूर्यृ॑तु॒था या॒तम॑स्ति॒ नोत श्रवो॑ विविदे संग॒मेषु॑। ग॒व्यन्त॒ इन्द्रं॑ स॒ख्याय॒ विप्रा॑ अश्वा॒यन्तो॒ वृष॑णं वा॒जय॑न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । स्थूरि॑ । ऋ॒तु॒ऽथा । या॒तम् । अस्ति॑ । न । उ॒त । श्रव॑: । वि॒वि॒दे॒ । स॒म्ऽग॒मेषु॑ ॥ ग॒व्यन्त॑: । इन्द्र॑म् । स॒ख्याय॑ । विप्रा॑: । अ॒श्व॒ऽयन्त॑: । वृष॑णम् । वा॒जय॑न्त: ॥१२५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु। गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । स्थूरि । ऋतुऽथा । यातम् । अस्ति । न । उत । श्रव: । विविदे । सम्ऽगमेषु ॥ गव्यन्त: । इन्द्रम् । सख्याय । विप्रा: । अश्वऽयन्त: । वृषणम् । वाजयन्त: ॥१२५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (स्थूरि) ठहरा हुआ [ढीला] काम (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार [ठीक समय पर] (यातम्) पाया हुआ (नहि) नहीं (अस्ति) होता है, (उत) और [इसी कारण] (संगमेषु) समाजों [वा संग्रामों] में (श्रवः) यश (न) नहीं (विविदे) मिलता है, (सख्याय) मित्रता के लिये (वृषणम्) बलवान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (वाजयन्तः) वेगवान् बनाते हुए (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (गव्यन्तः) भूमि चाहते हुए और (अश्वायन्तः) घोड़े चाहते हुए हैं ॥३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य कार्य आरम्भ करके आलस के मारे छोड़ देता है, वह यश नहीं पाता है, इसलिये वह विद्वानों से शिक्षा पाकर राज्य आदि कामों को पुरुषार्थ से चलावे ॥३॥

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