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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
सूक्त - गृत्समदो मेधातिथिर्वा
देवता - इन्द्र
छन्दः - एकवसानार्च्युष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-२
इन्द्रो॑ ब्र॒ह्मा ब्राह्म॑णात्सु॒ष्टुभः॑ स्व॒र्कादृ॒तुना॒ सोमं॑ पिबतु ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । ब्र॒ह्मा । ब्राह्म॑णात् । सु॒ऽस्तुभ॑: । सु॒ऽअ॒र्कात् । ऋ॒तुना॑ । सोम॑म् । पि॒ब॒तु॒ ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो ब्रह्मा ब्राह्मणात्सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । ब्रह्मा । ब्राह्मणात् । सुऽस्तुभ: । सुऽअर्कात् । ऋतुना । सोमम् । पिबतु ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
विषय - विद्वानों के व्यवहार का उपदेश।
पदार्थ -
(इन्द्रः) परमऐश्वर्यवाला (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदज्ञाता पुरुष] (सुष्टुभः) बड़े स्तुतियोग्य, (स्वर्कात्) बड़े पूजनीय (ब्राह्मणात्) ब्राह्मण [वेदोक्त ज्ञान] से (ऋतुना) ऋतु के अनुसार (सोमम्) उत्तम ओषधियों के रस को (पिबतु) पीवे ॥३॥
भावार्थ - वेदज्ञानी पुरुष वेदज्ञान से सदा सुख प्राप्त करे ॥३॥
टिप्पणी -
३−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (ब्रह्मा) वेदज्ञाता पुरुषः (ब्राह्मणात्) वेदोक्तज्ञानात्। शिष्टं पूर्ववत् ॥