अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
अ॒भि त्वा॑ वृषभा सु॒ते सु॒तं सृ॑जामि पी॒तये॑। तृ॒म्पा व्यश्नुही॒ मद॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । वृ॒ष॒भ॒ । सु॒ते । सु॒तम् । सृ॒जा॒मि॒ । पी॒तये॑ । तृ॒म्प । वि । अ॒श्नु॒हि॒ । मद॑म् ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा वृषभा सुते सुतं सृजामि पीतये। तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
विषय - राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(वृषभ) हे वीर ! (सुते) निचोड़ने पर (सुतम्) निचोड़े हुए [सोम रस] को (पीतये) पीने के लिये (त्वा अभि) तुझे (सृजामि) मैं देता हूँ। (तृम्प) तू तृप्त हो और (मदम्) आनन्द को (वि अश्नुहि) प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थ - जैसे राजा सद्वैद्यों द्वारा सोम आदि उत्तम ओषधियों के सेवन से प्रसन्न रहें, वैसे ही मनुष्य वेद आदि सत्य शास्त्रों का तत्त्व ग्रहण करके आनन्द पावें ॥१॥
टिप्पणी -
मन्त्र १-३। ऋग्वेद में हैं-८।४।२२-२४ तथा सामवेद में हैं- उ० १।२ तृच ७ तथा मन्त्र १ सामवेद में है-पू० २।७।७ ॥ १−(अभि) प्रति (त्वा) त्वाम् (वृषभ) हे वीर ! हे इन्द्र (सुते) अभिषुते। संस्कृते (सुतम्) अभिषुतं संस्कृतं सोमम् (सृजामि) त्यजामि। ददामि (पीतये) पानाय (तृम्प) तृम्प तृप्तौ। तृप्तो भव (वि) विविधम् (अश्नुहि) अशू व्याप्तौ-परस्मैपदम्। अश्नुष्व। प्राप्नुहि (मदम्) हर्षम् ॥