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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१

    हरि॑श्मशारु॒र्हरि॑केश आय॒सस्तु॑र॒स्पेये॒ यो ह॑रि॒पा अव॑र्धत। अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भिर्वा॒जिनी॑वसु॒रति॒ विश्वा॑ दुरि॒ता पारि॑ष॒द्धरी॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरि॑ऽश्मशारु: । हरि॑ऽकेश: । आ॒य॒स: । तु॒र॒:ऽपेये॑ । य: । ह॒रि॒पा: । अव॑र्धत ॥ अर्व॑त्ऽभि: । य: । हरि॑ऽभि: । वा॒जिनी॑ऽवसु: । अति॑ । विश्वा॑ । दु:ऽइ॒ता । परिषत् । हरी॒ इति॑ ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरिश्मशारुर्हरिकेश आयसस्तुरस्पेये यो हरिपा अवर्धत। अर्वद्भिर्यो हरिभिर्वाजिनीवसुरति विश्वा दुरिता पारिषद्धरी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरिऽश्मशारु: । हरिऽकेश: । आयस: । तुर:ऽपेये । य: । हरिपा: । अवर्धत ॥ अर्वत्ऽभि: । य: । हरिऽभि: । वाजिनीऽवसु: । अति । विश्वा । दु:ऽइता । परिषत् । हरी इति ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (हरिश्मशारुः) सिंह के शरीर को छेदनेवाला, (हरिकेशः) सूर्य समान तेजवाला, (आयसः) लोहे का बना हुआ [अति दृढ़] (यः) जो (हरिपाः) मनुष्यों का रक्षक [सेनापति] (तुरस्पेये) शीघ्र रक्षा करने में (अवर्धत) बढ़ा है, और (यः) जो (अर्वद्भिः) घोड़ों [के समान शीघ्रगामी] (हरिभिः) दुःख हरनेवाले मनुष्यों के साथ (वाजिनीवसुः) अन्नयुक्त क्रियाओं में बसनेवाला है, वह (विश्वा) सब (दुरिता) विघ्नों को (अति) लाँघकर (हरी) दुःख हरनेवाले दोनों बल और पराक्रम को (पारिषत्) भरपूर करे ॥३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य अति बलवान् और तेजस्वी होकर कष्ट से प्रजा की रक्षा करता है और सत्कारपूर्वक शूरवीर विद्वानों को अन्न आदि देता है, वही अपने बल और पराक्रम से कीर्ति पाता है ॥३॥

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