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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 53

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५३

    क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे। अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क: । ई॒म् । वे॒द॒ । सु॒ते । सचा॑ । पिब॑न्तम् । कत् । वय॑: । द॒धे॒ ॥ अ॒यम् । य: । पुर॑:। वि॒ऽभि॒नत्ति॑ । ओज॑सा । म॒न्दा॒न: । शि॒प्री । अन्ध॑स: ॥ ५३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे। अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क: । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वय: । दधे ॥ अयम् । य: । पुर:। विऽभिनत्ति । ओजसा । मन्दान: । शिप्री । अन्धस: ॥ ५३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (कः) कौन (सचा) नित्य मेल के साथ (सुते) तत्त्व रस (पिबन्तम्) पीते हुए (ईम्) प्राप्तियोग्य [सेनापति] को (वेद) जानता है ? (कत्) कितना (वयः) जीवनसामर्थ्य [पराक्रम] (दधे) वह रखता है ? (अयम्) यह (यः) जो (शिप्री) दृढ़ जबड़ेवाला, (अन्धसः) अन्न का (मन्दानः) आनन्द देनेवाला [वीर] (ओजसा) बल से (पुरः) दुर्गों को (विभिनत्ति) तोड़ देता है ॥१॥

    भावार्थ - जिस पराक्रमी पुरुष के शरीर बल और बुद्धिबल की चाह सामान्य मनुष्य नहीं जानते, वह नीतिज्ञ अन्न आदि पदार्थ एकत्र करके वैरियों को जीतता है ॥१॥

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