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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 59

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५९

    उदु॒ त्ये मधु॑ मत्त॒मा गिर॒ स्तोमा॑स ईरते। स॑त्रा॒जितो॑ धन॒सा अक्षि॑तोतयो वाज॒यन्तो॒ रथा॑ इव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊं॒ इति॑ । त्ये । मधु॑मत्ऽतमा: । गिर॑: । स्तोमा॑स: । ई॒र॒ते॒ ॥ स॒त्रा॒ऽजित॑: । ध॒न॒सा: । अक्षि॑तऽऊतय: । वा॒ज॒ऽयन्त॑: । रथा॑:ऽइव ॥५९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्ये मधु मत्तमा गिर स्तोमास ईरते। सत्राजितो धनसा अक्षितोतयो वाजयन्तो रथा इव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ऊं इति । त्ये । मधुमत्ऽतमा: । गिर: । स्तोमास: । ईरते ॥ सत्राऽजित: । धनसा: । अक्षितऽऊतय: । वाजऽयन्त: । रथा:ऽइव ॥५९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (त्ये) वे (मधुमत्तमाः) अतिमधुर (स्तोमासः) स्तोत्र (उ) और (गिरः) वाणियाँ (उत् ईरते) ऊँची जाती हैं। (इव) जैसे (सत्राजितः) सत्य से जीतनेवाले, (धनसाः) धन देनेवाले, (अक्षितोतयः) अक्षय रक्षा करनेवाले, (वाजयन्तः) बल प्रकट करते हुए (रथाः) रथ [आगे बढ़ते हैं] ॥१॥

    भावार्थ - जैसे शूरवीरों के रथ रणक्षेत्र में विजय पाने के लिये उमंग से चलते हैं, वैसे ही मनुष्य दोषों और दुष्टों को वश में करने के लिये परमात्मा की स्तुति को किया करें ॥१॥

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