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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 61

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६१

    तद॒द्या चि॑त्त उ॒क्थिनोऽनु॑ ष्टुवन्ति पू॒र्वथा॑। वृष॑पत्नीर॒पो ज॑या दि॒वेदि॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒द्य । चि॒त् । ते॒ । उ॒क्थिन॑: । अनु॑ । स्तु॒व॒न्ति॒ । पू॒र्वऽथा॑ ॥ वृष॑ऽपत्नी । अ॒प: । ज॒य॒ । दि॒वेऽदि॑वे ॥६१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदद्या चित्त उक्थिनोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा। वृषपत्नीरपो जया दिवेदिवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । अद्य । चित् । ते । उक्थिन: । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वऽथा ॥ वृषऽपत्नी । अप: । जय । दिवेऽदिवे ॥६१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 61; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (ते) तेरे (तत्) उस [सामर्थ्य] को (उक्थिनः) कहने योग्य के कहनेहारे पुरुष (अद्यचित्) अब भी (पूर्वथा) पहिले के समान (अनु) लगातार (स्तुवन्ति) गाते हैं। [जिस सामर्थ्य से] (वृषपत्नीः) बलवान् [तुझ परमात्मा] से रक्षा की हुई (अपः) प्रजाओं को (दिवेदिवे) दिन-दिन (जय) तू जीतता है ॥३॥

    भावार्थ - विज्ञानी सूक्ष्मदर्शी लोग परमात्मा की उस शक्ति को देखकर समर्थ होते हैं, जिस शक्ति से वह सब सृष्टि को रचकर सदा अपने वश में रखता है ॥३॥

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