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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८

    ए॒वा पा॑हि प्र॒त्नथा॒ मन्द॑तु त्वा श्रु॒धि ब्रह्म॑ वावृ॒धस्वो॒त गी॒र्भिः। आ॒विः सूर्यं॑ कृणु॒हि पी॑पि॒हीषो॑ ज॒हि शत्रूँ॑र॒भि गा इ॑न्द्र तृन्धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । पा॒हि॒ । प्र॒त्नऽथा॑ । मन्द॑तु । त्वा॒ । श्रुधि॑ । ब्रह्म॑ । व॒वृ॒धस्व॒ । उ॒त । गी॒ऽभि: ॥ आ॒वि: । सूर्य॑म् । कृ॒णु॒हि ।पी॒पि॒हि । इष॑: । ज॒हि । शत्रू॑न् । अ॒भि । गा: । इ॒न्द्र॒ । तृ॒न्द्धि॒ ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा पाहि प्रत्नथा मन्दतु त्वा श्रुधि ब्रह्म वावृधस्वोत गीर्भिः। आविः सूर्यं कृणुहि पीपिहीषो जहि शत्रूँरभि गा इन्द्र तृन्धि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । पाहि । प्रत्नऽथा । मन्दतु । त्वा । श्रुधि । ब्रह्म । ववृधस्व । उत । गीऽभि: ॥ आवि: । सूर्यम् । कृणुहि ।पीपिहि । इष: । जहि । शत्रून् । अभि । गा: । इन्द्र । तृन्द्धि ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 8; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) हे इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (प्रत्नया) पहिले के समान (एव) ही [हमारी] (पाहि) रक्षा कर, (ब्रह्म) ईश्वर वा वेद (त्वा) तुझे (मन्दतु) हर्षित करे, [उसे] (श्रुधि) सुन (उत) और (गीर्भिः) वेदवाणियों से (वावृधस्व) बढ़। (सूर्यम्) सूर्य [सूर्यसमान विद्याप्रकाश] को (आविः कृणु) प्रकट कर, (इषः) अन्नों को (पीपिहि) प्राप्त हो, (शत्रून्) शत्रुओं को (जहि) मार और [उसकी] (गाः) वाणियों को (अभि) सर्वथा (तृन्धि) मिटा दे ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य ईश्वर और वेद में श्रद्धा करके विद्या और पुरुषार्थ द्वारा अन्न आदि से परिपूर्ण होकर शत्रुओं का नाश कर उनकी कुमर्यादाओं को हटावे ॥१॥

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