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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 87

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८७

    यद्द॑धि॒षे प्र॒दिवि॒ चार्वन्नं॑ दि॒वेदि॑वे पी॒तिमिद॑स्य वक्षि। उ॒त हृ॒दोत मन॑सा जुषा॒ण उ॒शन्नि॑न्द्र॒ प्रस्थि॑तान्पाहि॒ सोमा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । द॒धि॒षे । प्र॒ऽदिवि॑ । चारु॑ । अन्न॑म् । दि॒वेऽदि॑वे । पी॒तिम् । इत् । अ॒स्य॒ । व॒क्षि॒ ॥ उ॒त । हृ॒दा । उ॒त । मन॑सा । जु॒षा॒ण: । उ॒शन् । इ॒न्द्र॒ । प्रऽथि॑तान् । पा॒हि॒ । सोमा॑न् ॥८७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्दधिषे प्रदिवि चार्वन्नं दिवेदिवे पीतिमिदस्य वक्षि। उत हृदोत मनसा जुषाण उशन्निन्द्र प्रस्थितान्पाहि सोमान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । दधिषे । प्रऽदिवि । चारु । अन्नम् । दिवेऽदिवे । पीतिम् । इत् । अस्य । वक्षि ॥ उत । हृदा । उत । मनसा । जुषाण: । उशन् । इन्द्र । प्रऽथितान् । पाहि । सोमान् ॥८७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (यत्) जिस (चारु) उत्तम (अन्नम्) अन्न को (प्रदिवि) पिछले समय में (दधिषे) तूने धारण किया था, (अस्य) उस [अन्न] के (पीतिम्) पान वा भोग को (दिवेदिवे) प्रतिदिन (इत्) ही (वक्षि) तू उपदेश करता है, (उत) और (हृदा) हृदय से (उत) और (मनसा) मनन से (प्रस्थितान्) उपस्थित (सोमान्) ऐश्वर्ययुक्त पदार्थों को (जुषाणः) सेवन करता हुआ और (उशन्) चाहता हुआ तू (पाहि) रक्षित कर ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य उत्तम ज्ञान और पदार्थों को प्राप्त होकर सबके सुख के लिये प्रयत्न करे ॥२॥

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