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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त

    आ॒विष्कृ॑णुष्व रू॒पाणि॒ मात्मान॒मप॑ गूहथाः। अथो॑ सहस्रचक्षो॒ त्वं प्रति॑ पश्याः किमी॒दिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒वि: । कृ॒णु॒ष्व॒ । रू॒पाणि॑ । मा । आ॒त्मान॑म् । अप॑ । गू॒ह॒था॒: ।अथो॒ इति॑ । स॒ह॒स्र॒च॒क्षो॒ इति॑ सहस्रऽचक्षो । त्वम् । प्रति॑ । प॒श्या॒: । कि॒मी॒दिन॑: ॥२०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आविष्कृणुष्व रूपाणि मात्मानमप गूहथाः। अथो सहस्रचक्षो त्वं प्रति पश्याः किमीदिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आवि: । कृणुष्व । रूपाणि । मा । आत्मानम् । अप । गूहथा: ।अथो इति । सहस्रचक्षो इति सहस्रऽचक्षो । त्वम् । प्रति । पश्या: । किमीदिन: ॥२०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (रूपाणि) [पदार्थों के] रूपों अर्थात् बाहिरी आकार को (आविष्कृणुष्व) प्रकट करदे, (आत्मानम्) [वस्तुओं के] आत्मा अर्थात् भीतरी स्वभाव को (मा अप गूहथाः) गुप्त मत रख (अथो) और भी (सहस्रचक्षो) हे असंख्य दर्शन शक्तिवाले परमात्मन् ! (त्वम्) तू (किमीदिनः) अब क्या, वह क्या हो रहा है, ऐसे गुप्त कर्म करनेवाले लुतरे लोगों को (प्रति) अत्यक्ष (पश्याः) देखले ॥५॥

    भावार्थ - मनुष्य पदार्थों के आकार और गुण को स्थूल और सूक्ष्म रीति से पहिचानकर दोषों से बचें और दूसरों को बचावें ॥५॥

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