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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 47

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिरस् देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    अ॒ग्निः प्रा॑तःसव॒ने पा॑त्व॒स्मान्वै॑श्वान॒रो वि॑श्व॒कृद्वि॒श्वशं॑भूः। स नः॑ पाव॒को द्रवि॑णे दधा॒त्वायु॑ष्मन्तः स॒हभ॑क्षाः स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । प्रा॒त॒:ऽस॒व॒ने । पा॒तु॒ । अ॒स्मान् । वै॒श्वा॒न॒र: । वि॒श्व॒ऽकृत् । वि॒श्वऽशं॑भू: । स: । न॒: । पा॒व॒क: । द्रवि॑णे । द॒धा॒तु॒ । आयु॑ष्मन्त: । स॒हऽभ॑क्षा: । स्या॒म॒ ॥४७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः प्रातःसवने पात्वस्मान्वैश्वानरो विश्वकृद्विश्वशंभूः। स नः पावको द्रविणे दधात्वायुष्मन्तः सहभक्षाः स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । प्रात:ऽसवने । पातु । अस्मान् । वैश्वानर: । विश्वऽकृत् । विश्वऽशंभू: । स: । न: । पावक: । द्रविणे । दधातु । आयुष्मन्त: । सहऽभक्षा: । स्याम ॥४७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी, (विश्वकृत्) जगत् का बनानेवाला, (विश्वशंभूः) संसार को सुख पहुँचानेवाला (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (प्रातःसवने) प्रातःकाल के यज्ञ में (अस्मान्) हमारी (पातु) रक्षा करे। (स) वह (पावकः) शुद्ध करनेवाला जगदीश्वर (नः) हमको (द्रविणे) धन के बीच (दधातु) रक्खे, (आयुष्मन्तः) उत्तम आयुवाले और (सहभक्षाः) साथ-साथ भोजन करनेवाले (स्याम) हम रहें ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर के महा उपकारों को देखकर पुरुषार्थ करके धन प्राप्त करें और परस्पर सहायक होकर सुख भोगें ॥१॥

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