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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 49

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
    सूक्त - गार्ग्य देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अग्निस्तवन सूक्त

    सु॑प॒र्णा वाच॑मक्र॒तोप॒ द्यव्या॑ख॒रे कृष्णा॑ इषि॒रा अ॑नर्तिषुः। नि यन्नि॒यन्ति॒ उप॑रस्य॒ निष्कृ॑तिं पु॒रू रेतो॑ दधिरे सूर्यश्रितः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्णा: । वाच॑म् । अ॒क्र॒त॒ । उप॑ । द्यवि॑ । आ॒ऽख॒रे । कृष्णा॑: । इ॒षि॒रा: । अ॒न॒र्ति॒षु॒: । नि । यत् । नि॒ऽयन्ति॑ । उप॑रस्य । नि:ऽकृ॑तिम् । पु॒रु । रेत॑: । द॒धि॒रे॒ । सू॒र्य॒ऽश्रित॑: ॥४९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णा वाचमक्रतोप द्यव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिषुः। नि यन्नियन्ति उपरस्य निष्कृतिं पुरू रेतो दधिरे सूर्यश्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्णा: । वाचम् । अक्रत । उप । द्यवि । आऽखरे । कृष्णा: । इषिरा: । अनर्तिषु: । नि । यत् । निऽयन्ति । उपरस्य । नि:ऽकृतिम् । पुरु । रेत: । दधिरे । सूर्यऽश्रित: ॥४९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (सूर्यश्रितः) सूर्य में ठहरी हुई (सुपर्णाः) अच्छे प्रकार पालन करनेवाली वा बड़ी शीघ्रगामी किरणों ने (आखरे) खननयोग्य (द्यवि) अन्तरिक्ष में (उप=उपेत्य) मिलकर (वाचम्) शब्द (अक्रत) किया, और (कृष्णाः) रस खैंचनेवाली (इषिराः) चलनेवाली [उन किरणों] ने (अनर्त्तिषुः) नृत्य किया। (यत्) जब वे (उपरस्य) मेघ की (निष्कृतिम्) रचना की ओर (नि) नियम से (नियन्ति) झुकती हैं, [तब] उन्होंने (पुरु) बहुत (रेतः) वृष्टि जल (दधिरे) धारण किया है ॥३॥

    भावार्थ - परमेश्वर की महिमा से सूर्य की किरणें विशाल आकाश में शब्द करके पार्थिव रस को खींचकर इधर-उधर चेष्टा करती हैं। उससे मेघ, मेघ से वृष्टि होकर संसार का उपकार करती हैं। इसी प्रकार प्रलय के पीछे सृष्टि और सृष्टि के पीछे प्रलय होती है ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १०। सू० ९४ म० ५ ॥

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