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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 51

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्ताति देवता - आपः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - एनोनाशन सूक्त

    वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ्सोमो॒ अति॑ द्रु॒तः। इन्द्र॑स्य॒ युजः॒ सखा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒यो: । पू॒त: । प॒वित्रे॑ण । प्र॒त्यङ् । सोम॑: । अति॑ । द्रु॒त: । इन्द्र॑स्य । युज्य॑:। सखा॑ ॥५१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्सोमो अति द्रुतः। इन्द्रस्य युजः सखा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायो: । पूत: । पवित्रेण । प्रत्यङ् । सोम: । अति । द्रुत: । इन्द्रस्य । युज्य:। सखा ॥५१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वायोः) सर्वव्यापक परमेश्वर के [बताये हुए] (पवित्रेण) शुद्ध आचरण से (पूतः) शुद्ध किया हुआ, (प्रत्यङ्) प्रत्यक्ष पूजनीय, (अति) अति (द्रुत) शीघ्रगामी (सोमः) ऐश्वर्यवान् वा अच्छे गुणवाला पुरुष (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्यः) योगी (सखा) सखा होता है ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि वेदविहित कर्मों को अति शीघ्र करके परमेश्वर के मित्र बन के सदा सुखी रहें ॥१॥ (वायु) शब्द परमेश्वरवाचक है−देखो [तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः] य० ३२।१। ब्रह्म [वायुः] सर्वव्यापक और ब्रह्म ही आनन्ददाता है ॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० १।३१ ॥

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