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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 53

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
    सूक्त - बृहच्छुक्र देवता - वैश्वानरः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्वतोरक्षण सूक्त

    पुनः॑ प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा न॒ ऐतु॒ पुन॒श्चक्षुः॒ पुन॒रसु॑र्न॒ ऐतु॑। वै॑श्वान॒रो नो॒ अद॑ब्धस्तनू॒पा अ॒न्तस्ति॑ष्ठाति दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॑: । प्रा॒ण:। पुन॑: । आ॒त्मा । न॒: । आ । ए॒तु॒ । पुन॑: । चक्षु॑: । पुन॑: । असु॑: । न॒: । आ । ए॒तु॒ । वै॒श्वा॒न॒र: । न॒: । अद॑ब्ध: । त॒नू॒ऽपा: । अ॒न्त: । ति॒ष्ठा॒ति॒ ।दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ ॥५३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनः प्राणः पुनरात्मा न ऐतु पुनश्चक्षुः पुनरसुर्न ऐतु। वैश्वानरो नो अदब्धस्तनूपा अन्तस्तिष्ठाति दुरितानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन: । प्राण:। पुन: । आत्मा । न: । आ । एतु । पुन: । चक्षु: । पुन: । असु: । न: । आ । एतु । वैश्वानर: । न: । अदब्ध: । तनूऽपा: । अन्त: । तिष्ठाति ।दु:ऽइतानि । विश्वा ॥५३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (पुनः) बार-बार (प्राणः) प्राण, (पुनः) बार-बार (आत्मा) आत्मबल (नः) हमें (ऐतु) प्राप्त हो, (पुनः) बार-बार (चक्षुः) देखने का सामर्थ्य, (पुनः) बार-बार (असुः) बुद्धि (नः) हमें (ऐतु) प्राप्त हो। (अदब्धः) बेचूक, (तनूपाः) शरीरों का रक्षक (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी परमात्मा (नः) हमारे (विश्वा) सब (दुरितानि) कष्टों के (अन्तः) बीच में (तिष्ठाति) स्थित रहे ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि सदा धर्म में प्रवृत्त रह कर परमेश्वर की आज्ञा पालन करें, जिससे विश्राम के पश्चात् और पुनर्जन्म में भी उत्तम शरीर और इन्द्रियाँ प्राप्त करके सुख भोगते रहें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० ४। म० १५ ॥

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