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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 78

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - त्वष्टा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - धनप्राप्ति प्रार्थना सूक्त

    त्वष्टा॑ जा॒याम॑जनय॒त्त्वष्टा॑स्यै॒ त्वां पति॑म्। त्वष्टा॑ स॒हस्र॒मायुं॑षि दी॒र्घमायुः॑ कृणोतु वाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । जा॒याम् । अ॒ज॒न॒य॒त् । त्वष्टा॑ । अ॒स्यै॒ । त्वाम् । पति॑म् । त्वष्टा॑ । स॒हस्र॑म् । आयूं॑षि । दी॒र्घम् । आयु॑: । कृ॒णो॒तु॒ । वा॒म् ॥७८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा जायामजनयत्त्वष्टास्यै त्वां पतिम्। त्वष्टा सहस्रमायुंषि दीर्घमायुः कृणोतु वाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा । जायाम् । अजनयत् । त्वष्टा । अस्यै । त्वाम् । पतिम् । त्वष्टा । सहस्रम् । आयूंषि । दीर्घम् । आयु: । कृणोतु । वाम् ॥७८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 78; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वर ने [तेरे हित के लिये] (जायाम्) वीरों को उत्पन्न करनेवाली पत्नी को, और (त्वष्टा) विश्वकर्मा ने (अस्यै) इस पत्नी के लिये (त्वाम्) तुझे (पतिम्) पति (अजनयत्) उत्पन्न किया है। (त्वष्टा) वही विश्वकर्मा (सहस्रम्=सहस्राणि) बल देनेवाले (आयूंषि) जीवनसाधन और (दीर्घम्) दीर्घ (आयुः) आयु (वाम्) तुम दोनों के लिये (कृणोतु) करे ॥३॥

    भावार्थ - जो स्त्री-पुरुष परमेश्वर की आज्ञा मान कर परस्पर हित करते हैं, वे अनेक प्रकार की वृद्धि करके अति आनन्द और कीर्ति पाते हैं ॥३॥

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