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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - अग्नाविष्णू छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नाविष्णु सूक्त

    अग्ना॑विष्णू॒ महि॒ तद्वां॑ महि॒त्वं पा॒थो घृ॒तस्य॒ गुह्य॑स्य॒ नाम॑। दमे॑दमे स॒प्त रत्ना॒ दधा॑नौ॒ प्रति॑ वां जि॒ह्वा घृ॒तमा च॑रण्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ना॑विष्णू॒ इति॑ । महि॑ । तत् । वा॒म् । म॒हि॒ऽत्वम् । पा॒थ: । घृ॒तस्य॑ । गुह्य॑स्य । नाम॑ । दमे॑ऽदमे । स॒प्त । रत्ना॑ । दधा॑नौ । प्रति॑ । वा॒म् । जि॒ह्वा । घृ॒तम् । आ । च॒र॒ण्या॒त् ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नाविष्णू महि तद्वां महित्वं पाथो घृतस्य गुह्यस्य नाम। दमेदमे सप्त रत्ना दधानौ प्रति वां जिह्वा घृतमा चरण्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नाविष्णू इति । महि । तत् । वाम् । महिऽत्वम् । पाथ: । घृतस्य । गुह्यस्य । नाम । दमेऽदमे । सप्त । रत्ना । दधानौ । प्रति । वाम् । जिह्वा । घृतम् । आ । चरण्यात् ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अग्नाविष्णू) हे बिजुली और सूर्य ! (वाम्) तुम दोनों का (तत्) वह (महि) बड़ा (महित्वम्) महत्त्व है, (गुह्यस्य) रक्षणीय, वा गुप्त (घृतस्य) सार रस के (नाम) झुकाव की (पाथः) तुम दोनों रक्षा करते हो। (दमेदमे) घर-घर में [प्रत्येक शरीर वा लोक में] (सप्त) सात (रक्षा) रत्नों [धातुओं अर्थात् रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य] को (दधानौ) धारण करनेवाले हो, (वाम्) तुम दोनों की (जिह्वा) जय शक्ति (घृतम्) सार रस को (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (आ) भले प्रकार (चरण्यात्) बनावे ॥१॥

    भावार्थ - जाठर अग्नि वा बिजुली अन्न को पकाकर उसके सार रस से सात धातु, रस, रुधिर आदि बनाकर शरीर को पुष्ट करता है और सूर्य पार्थिव जल को खींच कर मेघ बनाकर वृष्टि करके संसार का उपकार करता है ॥१॥

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