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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 78

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - बन्धमिचन सूक्त

    वि ते॑ मुञ्चामि रश॒नां वि योक्त्रं॒ वि नि॒योज॑नम्। इ॒हैव त्वमज॑स्र एध्यग्ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ते॒ । मु॒ञ्चा॒मि॒ । र॒श॒नाम् । वि । योक्त्र॑म् । वि । नि॒ऽयोज॑नम् । इ॒ह । ए॒व । त्वम् । अज॑स्र: । ए॒धि॒ । अ॒ग्ने॒ ॥८३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ते मुञ्चामि रशनां वि योक्त्रं वि नियोजनम्। इहैव त्वमजस्र एध्यग्ने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ते । मुञ्चामि । रशनाम् । वि । योक्त्रम् । वि । निऽयोजनम् । इह । एव । त्वम् । अजस्र: । एधि । अग्ने ॥८३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 78; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे आत्मा !] (ते) तेरी (रशनाम्) रसरी को, (योक्त्रम्) जोते वा डोरी को और (नियोजनम्) बन्धन गाँठ को (वि) विशेष करके (वि) विविध प्रकार (वि मुञ्चामि) मैं खोलता हूँ। (अग्ने) हे अग्नि [समान बलवान् आत्मा !] (इह) यहाँ पर (एव) ही (त्वम्) तू (अजस्रः) दुःखरहित होकर (एधि) रह ॥१॥

    भावार्थ - जो पुरुषार्थी योगी जन तीन गाँठों अर्थात् आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक क्लेशों से छूट जाते हैं, वे संसार में रह कर सबको सुखी रखते हैं ॥१॥

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