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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 95

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
    सूक्त - कपिञ्जलः देवता - गृध्रौ छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    आ॑तो॒दिनौ॑ नितो॒दिना॒वथो॑ संतो॒दिना॑वु॒त। अपि॑ नह्याम्यस्य॒ मेढ्रं॒ य इ॒तः स्त्री पुमा॑ञ्ज॒भार॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽतो॒दिनौ॑ । नि॒ऽतो॒दिनौ॑ । अथो॒ इति॑ । स॒म्ऽतो॒दिनौ॑ । उ॒त । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒। अ॒स्य॒ । मेढ्र॑म् । य: । इ॒त: । स्त्री । पुमा॑न् । ज॒भार॑ ॥१००.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत। अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इतः स्त्री पुमाञ्जभार ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽतोदिनौ । निऽतोदिनौ । अथो इति । सम्ऽतोदिनौ । उत । अपि । नह्यामि। अस्य । मेढ्रम् । य: । इत: । स्त्री । पुमान् । जभार ॥१००.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अथो) और भी (आतोदिनौ) दोनों सब ओर से सतानेवालों, (नितोदिनौ) नित्य सतानेवालों, (उत) और (संतोदिनौ) मिलकर सतानेवालों को (इतः) यहाँ पर [हमारे बीच] (यः) जिस किसी (स्त्री) स्त्री [वा] (पुमान्) पुरुष ने (जभार) स्वीकार किया है, (अस्य) उसके (मेढ्रम्) सेचनसामर्थ्य [वृद्धि शक्ति] को (अपि) सर्वथा (नह्यामि) मैं बाँधता हूँ ॥३॥

    भावार्थ - जो स्त्री-पुरुष काम क्रोध में फँस जाते हैं, वे अनेक पापबन्धनों में पड़कर शक्तिहीन और वृद्धिहीन होकर कष्ट भोगते हैं ॥३॥

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