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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    न च॑ प्रत्याह॒न्यान्मन॑सा॒ त्वा प्र॒त्याह॒न्मीति॑ प्र॒त्याह॑न्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । च॒ । प्र॒ति॒ऽआ॒ह॒न्यात् । मन॑सा । त्वा॒ । प्र॒ति॒ऽआह॑न्मि । इति॑ । प्र॒ति॒ऽआह॑न्यात् ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न च प्रत्याहन्यान्मनसा त्वा प्रत्याहन्मीति प्रत्याहन्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । च । प्रतिऽआहन्यात् । मनसा । त्वा । प्रतिऽआहन्मि । इति । प्रतिऽआहन्यात् ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 6; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (च) और (न) अब वह [विद्वान्] [विष को म० ३] (प्रत्याहन्यात्) हटा देवे, “[हे विष] ! (मनसा) मनन के साथ (त्वा) तुझ को (प्रत्याहन्मि) मैं निकाले देता हूँ,” (इति) इस प्रकार वह [उसे] (प्रत्याहन्यात्) हटा देवे ॥२॥

    भावार्थ - जब मनुष्य विचारपूर्वक दोष हटाने का प्रयत्न करता है, ब्रह्म की कृपा से उसके सब दोष क्षीण हो जाते हैं ॥२॥

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