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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सू॒र्यायै॑दे॒वेभ्यो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च। ये भू॒तस्य॒ प्रचे॑तस॒स्तेभ्य॑ इ॒दम॑करं॒ नमः॑॥
स्वर सहित पद पाठसू॒र्यायै॑ । दे॒वेभ्य॑: । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । च॒ । ये । भू॒तस्य॑ । प्रऽचे॑तस: । तेभ्य॑: । इ॒दम् । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यायैदेवेभ्यो मित्राय वरुणाय च। ये भूतस्य प्रचेतसस्तेभ्य इदमकरं नमः॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यायै । देवेभ्य: । मित्राय । वरुणाय । च । ये । भूतस्य । प्रऽचेतस: । तेभ्य: । इदम् । अकरम् । नम: ॥२.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 46
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( सूर्यायै ) = सूरि अर्थात् विद्वानों के सदा हित करनेवाली ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिए ( देवेभ्यः ) = उत्तम गुणों की प्राप्ति के लिए ( च ) = और ( वरुणाय मित्राय ) = श्रेष्ठ मित्र की प्राप्ति के लिए ( ये ) = जो पुरुष ( भूतस्य ) = उचित कर्म के ( प्रचेतसः ) = जाननेवाले हैं ( तेभ्यः ) = उनके लिए ( इदं नमः अकरम् ) = यह मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ -
भावार्थ = जो श्रेष्ठ पुरुष सबका हित करनेवाली विद्या को प्राप्त करते हैं वे संसार में प्रशंसनीय और सुखी होते हैं ।
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