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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - इन्द्राबृहस्पती
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - परिपाण सूक्त
बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः। इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरी॑यः कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑: । न॒: । परि॑ । पा॒तु॒ । प॒श्चात् । उ॒त । उत्ऽत॑रस्मान् । अध॑रात् । अ॒घ॒ऽयो: । इन्द्र॑: । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त । म॒ध्य॒त: । न॒: । सखा॑ । सखि॑ऽभ्य: । वरी॑य: । कृ॒णो॒तु॒ ॥५३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः। इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नः सखा सखिभ्यो वरीयः कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पति: । न: । परि । पातु । पश्चात् । उत । उत्ऽतरस्मान् । अधरात् । अघऽयो: । इन्द्र: । पुरस्तात् । उत । मध्यत: । न: । सखा । सखिऽभ्य: । वरीय: । कृणोतु ॥५३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( बृहस्पतिः ) = सबका बड़ा स्वामी परमेश्वर ( नः ) = हमें ( पश्चात् ) = पीछे ( उत्तरस्मात् ) = ऊपर ( उत ) = और ( अधरात् ) = नीचे से ( अघायोः ) = पापेच्छु दुराचारी शत्रु से ( परिपातु ) = सब प्रकार बचावे । ( इन्द्रः ) = परमेश्वर ( पुरस्तात् ) = आगे से ( उत मध्यतः ) = और मध्य से ( न: ) = हमारे लिए ( वरीयः ) = विस्तीर्ण स्थान ( कृणोतु ) = करे ( सखा सखिभ्यः ) = जैसे मित्र मित्र के लिए करता है ।
भावार्थ -
भावार्थ = परमात्मा आगे, पीछे, ऊपर नीचे से सब शत्रुओं से हमारी रक्षा करे । वह परमेश्वर हमारे लिए आगे से और मध्य से विस्तीर्ण स्थान निर्माण करे। जैसे एक मित्र अपने मित्रों के लिए स्थान बनाता है।
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