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अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
यो भू॒तं च॒ भव्यं॑ च॒ सर्वं॒ यश्चा॑धि॒तिष्ठ॑ति। स्वर्यस्य॑ च॒ केव॑लं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । भू॒तम् । च॒ । भव्य॑म् । च॒ । सर्व॑म् । य: । च॒ । अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑ति । स्व᳡: । यस्य॑ । च॒ । केव॑लम् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । भूतम् । च । भव्यम् । च । सर्वम् । य: । च । अधिऽतिष्ठति । स्व: । यस्य । च । केवलम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वरप्रार्थनाविषय
व्याख्यान -
(यो भूतम्) जो परमेश्वर एक भूतकाल जो व्यतीत हो गया है, (च) अनेक चकारों से दूसरा जो वर्तमान है, (भव्यं च) और तीसरा भविष्यत् जो होने वाला है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है, उन सब व्यवहारों को वह यथावत् जानता है, (सर्वं यश्चाधिष्ठति) तथा जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, रचता, पालन, लय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, (स्वर्यस्य च केवलम्) जिसका सुख ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार सुख का भी देने वाला है, (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) ज्येष्ठ अर्थात् सबसे बड़ा सब सामर्थ्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है, उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। जो कि सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो॥१॥
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