ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒ग्रस्तु॑रा॒षाळ॒भिभू॑त्योजा यथाव॒शं त॒न्वं॑ चक्र ए॒षः। त्वष्टा॑र॒मिन्द्रो॑ ज॒नुषा॑भि॒भूया॒मुष्या॒ सोम॑मपिबच्च॒मूषु॑॥
स्वर सहित पद पाठउ॒ग्रः । तु॒रा॒षाट् । अ॒भिभू॑तिऽओजाः । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व॑म् । च॒क्रे॒ । ए॒षः । त्वष्टा॑रम् । इन्द्रः॑ । ज॒नुषा॑ । अ॒भि॒ऽभूय॑ । आ॒ऽमुष्य॑ । सोम॑म् । अ॒पि॒ब॒त् । च॒मूषु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उग्रस्तुराषाळभिभूत्योजा यथावशं तन्वं चक्र एषः। त्वष्टारमिन्द्रो जनुषाभिभूयामुष्या सोममपिबच्चमूषु॥
स्वर रहित पद पाठउग्रः। तुराषाट्। अभिभूतिऽओजाः। यथाऽवशम्। तन्वम्। चक्रे। एषः। त्वष्टारम्। इन्द्रः। जनुषा। अभिऽभूय। आऽमुष्य। सोमम्। अपिबत्। चमूषु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजापालनविषयमाह।
अन्वयः
य एषश्चमूषु सोममामुष्याऽपिबत्तं त्वष्टारमभिभूय जनुषोग्रस्तुराषाडभिभूत्योजा इन्द्रो यथावशं तन्वं चक्रे स राज्यं कर्त्तुमर्हेत् ॥४॥
पदार्थः
(उग्रः) तेजस्वी (तुराषाट्) यस्तुरा त्वरिताञ्छीघ्रकारिणः सहते सः (अभिभूत्योजाः) शत्रूणामभिभवकरः पराक्रमो यस्य सः (यथावशम्) वशमनतिक्रम्य वर्त्तते तत् (तन्वम्) शरीरम् (चक्रे) करोति (एष) (त्वष्टारम्) तेजस्विनम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (जनुषा) जन्मना (अभिभूय) शत्रून् तिरस्कृत्य (आमुष्य) चोरयित्वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सोमम्) ओषधिरसम् (अपिबत्) पिबेत् (चमूषु) भक्षयित्रीषु सेनासु ॥४॥
भावार्थः
ये विद्वांसो धार्मिका राजजनास्ते स्तेनादीन् दुष्टाँस्तिरस्कृत्य मादकद्रव्यसेविनो दण्डयित्वा स्वयमव्यसनिनो भूत्वा प्रजाः पालयितुं क्षमाः स्युस्त एव राज्यमुन्नेतुमर्हेयुः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रजा के पालन का विषय अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो (एषः) यह (चमूषु) भक्षण करनेवाली सेनाओं में (सोमम्) ओषधियों के रस की (आमुष्य) चोरी करके (अपिबत्) पीवे उस (त्वष्टारम्) तेजस्वी और शत्रुओं का (अभिभूय) तिरस्कार करके (जनुषा) जन्म से (उग्रः) तेजस्वी (तुराषाट्) शीघ्रकारियों को सहनेवाला (अभिभूत्योजाः) शत्रुओं के तिरस्कार करनेवाले पराक्रम से युक्त (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्यवाला पुरुष (यथावशम्) यथासामर्थ्य (तन्वम्) शरीर को (चक्रे) करता है, वह राज्य करने के योग्य होवे ॥४॥
भावार्थ
जो विद्वान् धार्मिक राजा जन हैं, वे चोर आदि दुष्ट जनों का तिरस्कार और मादक द्रव्य अर्थात् उन्मत्तता करनेवाले द्रव्यों के सेवनकर्त्ताओं का दण्ड करके और अपने आप अव्यसनी होकर प्रजाओं के पालन करने को समर्थ होवें, वे ही राज्य की वृद्धि करने के योग्य होवें ॥४॥
विषय
सूर्य का भी अभिभव
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार सोमरक्षण करनेवाला व्यक्ति (उग्रः) = तेजस्वी बनता है, (तुराषाट्) = त्वरा से शत्रुओं का मर्षण करता है। (अभिभूति ओजा:)=- शत्रुओं के अभिभावक बलवाला होता है। (एषः) = यह (तन्वम्) = अपने शरीर को (यथावशम्) = इच्छा के अनुसार चक्रे बनाता है। शक्ति का रक्षण करके शरीर को अधिक से अधिक सुन्दर बना पाता है। [२] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (जनुषा) = इस प्रकार शक्तियों के विकास से (त्वष्टारम्) = सूर्य को भी अभिभूय तिरस्कृत करकेसूर्य से भी अधिक तेजस्वी बनकर (अमुष्य) = उस प्रभु द्वारा उत्पन्न किये गये इस सोम को (चमूषु) = इन शरीरूप चमसों में शरीररूप पात्रों में (अपिबत्) = पीता है। सोम का शरीर में ही रक्षण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से हमें शत्रुओं का अभिभव करनेवाला बल प्राप्त होता है। यह सोमपान करनेवाला सूर्य से भी अधिक तेजस्वी बनता है।
विषय
शरीरवत् वीर की राष्ट्र वृद्धि।
भावार्थ
(एषः) वह राजा, सेनापति (उग्रः) भयंकर, (तुराषाट्) वेगवान् शत्रु वीरों का पराजय करने हारा (अभिभूत्योजाः) शत्रुओं को पराजित करने वाले पराक्रम से युक्त (यथावशं) अपने वश करने के सामर्थ्य के अनुसार ही (तन्वं चक्रे) अपने शरीर और राष्ट्र को विस्तृत करे। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (जनुषा) जन्मसे ही—निसर्ग से ही (त्वष्टारम् अभिभूय) सूर्य को भी पराजित कर उससे भी बढ़कर तेजस्वी होकर (चमूषु) सेनाओं के बल पर (अमुष्य) दूरस्थ शत्रु पुरुष के भी (सोमम् अपिबत्) राष्ट्रैश्वर्य को उपभोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता ॥ छन्द:–१, २ निचृत्त्रिष्टुप। ३, ४ त्रिष्टुप्। ५ भुरिक् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान धार्मिक राजे असतात, त्यांनी चोर इत्यादी दुष्ट लोकांचा तिरस्कार करावा व मादक द्रव्याचे सेवन करणाऱ्यास दंड करून स्वतः निर्व्यसनी होऊन प्रजेचे पालन करण्यास समर्थ व्हावे. तेच राज्याची वृद्धी करण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Blazing brave, lustrous and impetuous victor over fastest forces, overwhelming in strength, he is a versatile master of his manifestation in action. By nature and birth he commands and controls the creative energy for development and, drawing it in from nature, he drinks the soma from all sources of nature and humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How the progeny should be brought up.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
He who steales away the Soma juice from the army men and drinks it, Indra (a wealthy king) overcomes that powerful person. He himself is full of splendor by his nature, subdues even powerful active (wicked) persons. Endowed with great strength, he makes his body per his will. Such a man is fit to be the ruler of a State.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only those highly learned and righteous officers of the State are capable to lead a State towards the progress who overcome thieves and other wicked persons, and punish those who take wine and other intoxicants, while they are being themselves free from all vices, and are able to provide support to the people.
Foot Notes
(त्वष्टारम् ) तेजस्विनम् । त्वष्टा तूर्णामश्नुते इति नैरुक्ताः । त्विषेव स्याद, दीप्तिकर्मणः ( NRT 8, 2, 14 ) । अत्र दीत्यर्थमादाय तेजस्विनमिति भाष्यकृता व्याख्यातम् । त्विष-दीप्तौ (भ्वा० ) A man full of splendor. (चमूषु) भक्षयित्रीषु सेनासु = Among the armies.
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