ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 82/ मन्त्र 5
इन्द्रा॑वरुणा॒ यदि॒मानि॑ च॒क्रथु॒र्विश्वा॑ जा॒तानि॒ भुव॑नस्य म॒ज्मना॑ । क्षेमे॑ण मि॒त्रो वरु॑णं दुव॒स्यति॑ म॒रुद्भि॑रु॒ग्रः शुभ॑म॒न्य ई॑यते ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑वरुणा । यत् । इ॒मानि॑ । च॒क्रथुः॑ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । भुव॑नस्य । म॒ज्मना॑ । क्षेमे॑ण । मि॒त्रः । वरु॑णम् । दु॒व॒स्यति॑ । म॒रुत्ऽभिः॑ । उ॒ग्रः । शुभ॑म् । अ॒न्यः । ई॒य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रावरुणा यदिमानि चक्रथुर्विश्वा जातानि भुवनस्य मज्मना । क्षेमेण मित्रो वरुणं दुवस्यति मरुद्भिरुग्रः शुभमन्य ईयते ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रावरुणा । यत् । इमानि । चक्रथुः । विश्वा । जातानि । भुवनस्य । मज्मना । क्षेमेण । मित्रः । वरुणम् । दुवस्यति । मरुत्ऽभिः । उग्रः । शुभम् । अन्यः । ईयते ॥ ७.८२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रावरुणा) हे अग्निजलसम्बन्धिविद्यावेत्तारो विद्वांसः ! यूयम् (मज्मना) आत्मीयेन बलेन (विश्वा, जातानि) सकलवस्तूनि (क्षेमेण) सकुशलं (भुवनस्य) जगति स्थितानि रक्षत (यत्) यदिदं (इमानि, चक्रथुः) युद्धविषयककार्यं कुरुथ तत् (मित्रः) जगतः सुखकारकं भवतु तथा च (वरुणम्) सर्वस्याच्छादने शक्तं जलमयं वायुम् (दुवस्यति) अपवार्य (उग्रः) सङ्ग्रामकुशलाः सैनिकाः (मरुद्भिः) नभसि प्रसरणशीलैर्वायुभिः शत्रूञ्जयन्तु (अन्यः) अन्ये सैनिकाः (शुभम्) शुभैः साधनैः शत्रून् (ईयते) प्राप्नुवन्तु तत्समक्षं गच्छन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रावरुणा) हे अग्नि तथा जलविद्यावेत्ता विद्वानों ! तुम लोग (मज्मना) अपने आत्मिक बल से (विश्वा, जातानि) सम्पूर्ण विश्व के अनुभव द्वारा (क्षेमेण) कुशलपूर्वक (भुवनस्य) संसार की रक्षा करो, (यत्) जो (इमानि, चक्रथुः) यह युद्धविद्याविषयक कार्य्य करते हो, वह (मित्रः) संसार को सुखकारक हो और (वरुणं) सबको आच्छादन करनेवाली जलमय वायु को (दुवस्यति) दूर करके (उग्रः) युद्धविद्या में निपुण सैनिक पुरुष (मरुद्भिः) आकाशमण्डल में फैलनेवाली वायुओं द्वारा शत्रुओं को जीतें, (अन्यः) अन्य सैनिक पुरुष (शुभं) शुभ साधनों द्वारा शत्रु को (ईयते) प्राप्त हों अर्थात् उसके सम्मुख जायें ॥५॥
भावार्थ
हे आग्नेय तथा तथा जलीय अस्त्र-शस्त्रों के वेत्ता विद्वानों ! तुम लोग अपने अनुभव द्वारा राज्यविरोधी शत्रुओं को विजय करके सम्पूर्ण संसार की रक्षा करो, तुम कलाकौशल के ज्ञान द्वारा युद्धविषयक अस्त्र- शस्त्र निर्माण करो और ऐसे अस्त्रों का प्रयोग करो, जो आकाशमण्डल में फैल जानेवाली वायुओं द्वारा शत्रु का विजय करें अर्थात् प्रबल शत्रु को आग्नेयास्त्र तथा वारुणास्त्र द्वारा विजय करो और साधारण शत्रु को शुभ साधनों से अपने वश में करो, जिससे उसको घोर कष्ट न हो ॥५॥
विषय
आधिदैविक दृष्टान्त से इन्द्र वरुण का रहस्य । सूर्य-मेघवत् कोश और दण्ड के अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
आधिदैविक दृष्टान्तों से इन्द्र वरुण का रहस्य। जिस प्रकार ( मित्रः ) प्राणवत् प्रिय, सबका मित्र सूर्य ( वरुणं ) आकाश को आच्छादन करने वाले मेघ को ( क्षेमेण दुवस्यति ) प्रजा के पालन-सामर्थ्य अन्न जलादि से युक्त करता है और ( अन्यः ) दूसरा ( उग्रः ) प्रबल वायु ( मरुद्भिः ) मध्यस्थानीय अन्तरिक्षस्थ वायुओं से ( शुभम् ईयते ) जल को प्राप्त कराता है और इस प्रकार वे दोनों सूर्य और वायु या विद्युत् ( मज्मना ) अपने बल से ( भुवनस्य इमा विश्वा जातानि ) संसार के इन समस्त प्राणियों को ( चक्रथुः ) उत्पन्न करते हैं इसी प्रकार ( यत् इन्द्रा वरुणा ) जो इन्द्र और वरुण ऐश्वर्य और दण्ड के अध्यक्ष जन ( मज्मना ) अपने धन और सैन्य बल से ( इमानि विश्वा जातानि ) इन समस्त जनों को ( चक्रथुः ) अपने अधीन करते और सुखपूर्वक समृद्ध करते हैं, वे कैसे करते हैं ? ( मित्रः ) सबको मरने या नाश होने से बचाने वाला, सर्वस्नेही, न्यायाध्यक्ष ब्राह्मण वर्ग ( वरुणं ) दुष्टों के वारण करने वाले दण्डवान् पुरुष को ( क्षेमेण ) प्रजा के योग क्षेम या रक्षा या प्राप्त धन के सामर्थ्य से ( दुवस्यति ) युक्त करता है उसको प्रजा की रक्षा अन्नादि से पालन का सर्वाधिकार सौंपता है और (अन्यः) दूसरा ( उग्रः ) होकर अति बलवान् पुरुष ( मरुद्भिः ) वीर, शत्रुमारक सुभटों से युक्त होकर ( शुभम् ईयते ) सुशोभित पद को प्राप्त करता है । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्दः—१, २, ६, ७, ९ निचृज्जगती। ३ आर्ची भुरिग् जगती। ४,५,१० आर्षी विराड् जगती। ८ विराड् जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
इन्द्र-वरुण का रहस्य
पदार्थ
पदार्थ- आधिदैविक दृष्टान्तों से इन्द्र-वरुण का रहस्य । जैसे (मित्र:) = सबका मित्र सूर्य (वरुणं) = आकाश के आच्छादक मेघ को (क्षेमेण दुवस्यति) = प्रजा के पालन-सामर्थ्य, अन्न-जलादि से युक्त करता है और (अन्य:) = दूसरा (उग्रः) = प्रबल वायु (मरुद्भिः) = मध्यस्थानीय वायुओं से (शुभम् ईयते) = जल को प्राप्त कराता है और सूर्य, वायु या विद्युत् दोनों (मज्मना) = बल से (भुवनस्य इमा विश्वा जातानि) = संसार के इन समस्त प्राणियों को (चक्रथुः) = उत्पन्न करते हैं, ऐसे ही (यत् इन्द्रावरुणा) = जो इन्द्र और वरुण ऐश्वर्य और दण्ड के अध्यक्ष जन (मज्मना) = धन और सैन्यबल से (इमानि विश्वा जातानि) = इन समस्त जनों को (चक्रथुः) = अपने अधीन और समृद्ध करते हैं। वे कैसे करते हैं? (मित्रः) = सबको मरने या नाश होने से बचानेवाला, ब्राह्मण-वर्ग (वरुणं) = दुष्टों के वारक दण्डवान् क्षत्रवर्ग को (क्षेमेण) = प्रजा के योग्यक्षेम, रक्षा या प्राप्त धन के सामर्थ्य से दुवस्यति युक्त करता है, उसको प्रजा की रक्षा और पालन का अधिकार सौंपता है और (अन्यः) = दूसरा (उग्रः) = बलवान् पुरुष (मरुद्भिः) = शत्रुमारक सुभटों से युक्त होकर (शुभम् ईयते) = शोभित पद को प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्र और वरुण राजा और सेनापति ऐश्वर्य और दण्ड के अध्यक्ष हैं। ये दोनों धन और रक्षा कार्यों से प्रजाओं को अधीन रखें। ब्राह्मण वर्ग तथा क्षत्र वर्ग को विभिन्न पदों पर नियुक्त कर प्रजा की समृद्धि हेतु अज्ञान एवं शत्रुओं से रक्षा करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Varuna, with your strength and vision you rule and advance and thus serve all these children of the earth. Mitra, power of love and friendship with warmth of passion for peace and stability serves and supports Varuna, judgement and discrimination for the collective good, and the other, Indra, power and passion for advancement, with all his storm troopers fast as winds fights for the defence and advancement of the good of all.
मराठी (1)
भावार्थ
हे आग्नेय व जलीय अस्त्रशस्त्रवेत्त्या विद्वानांनो! तुम्ही आपल्या अनुभवाद्वारे राज्यविरोधी शत्रूंवर विजय प्राप्त करून संपूर्ण जगाचे रक्षण करा. तुम्ही कलाकौशल्याच्या ज्ञानाद्वारे युद्धविषयक अस्त्रशस्त्र निर्माण करा व अशा अस्त्रांचा प्रयोग करा, की जे आकाशमंडलात पसरणाऱ्या वायूद्वारे शत्रूवर विजय प्राप्त करतील. प्रथम प्रबल शत्रूवर आग्नेयास्त्र व वारुणास्त्राद्वारे विजय मिळवा व साधारण शत्रूला चांगल्या साधनांनी आपल्या वशमध्ये करा. ज्यामुळे त्याला अति कष्ट होऊ नयेत. ॥५॥
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