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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 87
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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वि꣣शो꣡वि꣢शो वो꣣ अ꣡ति꣢थिं वाज꣣य꣡न्तः꣢ पुरुप्रि꣣य꣢म् । अ꣣ग्निं꣢ वो꣣ दु꣢र्यं꣣ व꣡चः꣢ स्तु꣣षे꣢ शू꣣ष꣢स्य꣣ म꣡न्म꣢भिः ॥८७॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣शो꣡वि꣢शः । वि꣣शः꣢ । वि꣣शः । वः । अ꣡ति꣢꣯थिम् । वा꣣जय꣡न्तः꣢ । पु꣣रुप्रिय꣢म् । पु꣣रु । प्रिय꣢म् । अ꣣ग्नि꣢म् । वः꣣ । दु꣡र्य꣢꣯म् । दुः । य꣣म् । व꣡चः꣢꣯ । स्तु꣣षे꣢ । शू꣣ष꣡स्य꣢ । म꣡न्म꣢꣯भिः ॥८७॥
स्वर रहित मन्त्र
विशोविशो वो अतिथिं वाजयन्तः पुरुप्रियम् । अग्निं वो दुर्यं वचः स्तुषे शूषस्य मन्मभिः ॥८७॥
स्वर रहित पद पाठ
विशोविशः । विशः । विशः । वः । अतिथिम् । वाजयन्तः । पुरुप्रियम् । पुरु । प्रियम् । अग्निम् । वः । दुर्यम् । दुः । यम् । वचः । स्तुषे । शूषस्य । मन्मभिः ॥८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 87
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा-रूप अतिथि की अर्चना का वर्णन है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (वः) तुम (विशः विशः) प्रत्येक मनुष्य के (अतिथिम्) अतिथि के समान पूज्य, (पुरुप्रियम्) बहुत प्रिय परमेश्वर रूप अग्नि की (वाजयन्तः) अर्चना करो। (दुर्यम्) घर के समान शरणभूत (अग्निम्) उस अग्रनायक जगदीश्वर को (वः) तुम्हारा (वचः) स्तुति-वचन, प्राप्त हो। मैं भी उस जगदीश्वर की (शूषस्य मन्मभिः) बल और सुख के स्तोत्रों से अर्थात् सबल और सुखजनक स्तोत्रों से (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥७॥
भावार्थ
सबके हृदय में अतिथि-रूप से विराजमान भक्तवत्सल परमेश्वर का सब मनुष्यों को स्तुतिवचनों से अभिनन्दन करना चाहिए ॥७॥
पदार्थ
(वः) तुम ‘विभक्ति व्यत्ययः’ (वाजयन्तः) अपने आत्मबल को चाहने के हेतु (विशः-विशः) मनुष्य मनुष्य—प्रत्येक के (अतिथिः) सदा साथ प्राप्त पूज्य (पुरुप्रियम्) बहुत प्रिय (वः शूषस्य दुर्यम्-अग्निम्) तुम्हारे सुख—कल्याण के “शूषं सुखनाम” [निघं॰ ३.६] घर “दुर्यं गृहनाम” [निघं॰ ३.४] परमात्मा को (मन्मभिः-वचः) मननीय वचनों से उसके गुण चिन्तन स्तुति वचनों से “मन्मानि मननीयानि” [निरु॰ ८.६] ‘वचः-वचोभिः-विभक्तेर्लुक्’ (स्तुषे) स्तुति करो ‘पुरुषवचनव्यत्ययः’।
भावार्थ
मनुष्यों को अपना आत्मबल बढ़ाने के लिये सुखशान्ति के धाम सदा के साथी पूज्य सर्वप्रिय परमात्मा की उसके गुणचिन्तन वचनों से स्तुति करनी चाहिए॥७॥
विशेष
ऋषिः—गोपवनः सप्तवध्रिर्वा (अपनी इन्द्रियों को पवित्र करने वाला या पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन और बुद्धि को बान्धने—नियन्त्रण में रखने वाला उपासक)॥<br>
विषय
अर्थभावनपूर्वक जप
पदार्थ
(वः) = तुममें (विशः विशः) = प्रत्येक प्रजाको (अतिथिम्) = निरन्तर प्राप्त होनेवाले, दुःख के समय सदा सहायक होनेवाले (पुरुप्रियम्) = सबके पालक, पूरक तथा तृप्त करनेवाले (अग्निम्) = अग्रस्थान पर पहुँचानेवाले, (शूषस्य) = बल व सुख के (दुर्यम्) = धाम उस प्रभु को (वः) = तुममें से (वाजयन्तः) = शक्ति को चाहते हुए या अर्चना करते हुए लोग (मन्मभिः) = मनन के साथ (वचः) = वचन (स्तुषे) = कहते हैं।
वह प्रभु सुख में विस्मृत हो जाए, पर दुःख में तो मनुष्य को उसका स्मरण होता ही है और वस्तुत: दु:ख में जब कोई भी दूसरा सहायक नहीं होता उस समय वे प्रभु ही हमारे कष्टों का निवारण करते हैं। वे प्रत्येक के अतिथि हैं, निरन्तर उसे प्राप्त होनेवाले हैं। वे पुरु हैं—पालन व पूरण करनेवाले हैं। सबके रक्षक हैं और सबकी कमियों को सदा दूर किया करते हैं। इस प्रकार (प्रियम्) = तृप्त करनेवाले हैं। सब प्रकार से हमारी कमियों को दूर कर वे हमें आगे ले-चलते हैं और उन्नत कराते-कराते हमें 'परागति' = मोक्ष को भी प्राप्त कराते हैं।
वे प्रभु सुख व शक्ति के धाम हैं। 'शूष' शब्द शक्ति व सुख दोनों का वाचक है। इस शब्द की मूल धातु शूष उत्पन्न करने के अर्थ में आती है। वास्तव में सुख उत्पन्न करने व निर्माण में ही है और शक्ति भी वही है जो उत्पादक हो ।
इस मन्त्र में वर्णित गुणों में प्रीति होने पर इस स्तोता की इन्द्रियाँ विषय-वासनाओं की ओर जाती ही नहीं। वह दुःखियों का सहायक बनता है, अनाथों का पालन करता है, अपनी कमियों को दूर करने का प्रयत्न करता है, सभी का प्रिय होता है, आगे-आगे पग रखता है और निर्माण के कार्यों में आनन्द का अनुभव करता हुआ अपनी शक्ति को बढ़ाता है - यही उसकी आराधना होती है। एवं, इसकी इन्द्रियाँ विषय- पंक में लिप्त नहीं होतीं और यह पवित्र इन्द्रियोंवाला बनकर इस मन्त्र का ऋषि गो- पवन होता है। काम, क्रोध, लोभरूप तीनों नरक-द्वारों से दूर होने के कारण ‘अत्रि-पुत्र' कहलाता है [नहीं हैं तीनों जिसमें] । परिणामतः ‘अध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक' इन तीनों कष्टों से भी यह बचा रहता है। इसलिए भी यह 'अ-त्रि' है।
भावार्थ
हम सदा विचारपूर्वक प्रभु के नामों से उसका स्तवन करें, हमें उन गुणों में प्रीति हो। (‘तयपस्तदर्थभावनम्) = प्रभु का जप और अर्थ का चिन्तन हमें भी उत्तम बनने की प्रेरणा दे।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे मनुष्यो ! ( वः ) = तुम लोग ( विशः विशः अतिथिं ) = समस्त प्रजाओं के अतिथि के समान पूज्य या सब प्रजाओं में व्यापक ( पुरुप्रियम् ) = सबके प्रिय ( अग्निं ) = अग्नि परमेश्वर को ( वाजयन्तः ) = अर्चना करते और बढ़ाते रहते हो। मैं ( शूषस्य ) = सुख प्राप्ति के लिये ( दुर्य१ ) = गृह या इस देह के लिये हितकारी इस ( अग्नि ) = ज्ञानस्वरूप परमेश्वर विषयक ( वचः ) = वाणी से ( मन्मभिः ) = मनन करने योग्य साधनों से ( वः ) = आप लोगों के प्रति ( स्तुषे ) = ठीक २ प्रकार से वर्णन करता हूं ।
टिप्पणी
१. दुर्वा गृहाः । नि० ३ ।४। ७।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गोपवन:। छन्द: - अनुष्टुप् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मातिथेरर्चनमाह।
पदार्थः
हे जनाः ! (वः२) यूयम् (विशः विशः) मनुष्यस्य मनुष्यस्य। विश इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (अतिथिम्) अतिथिम् इव इति लुप्तोपमम्, अतिथिवत् पूज्यम् इत्यर्थः, (पुरुप्रियम्) अतिशयस्नेहास्पदम् अग्निं परमेश्वरम् (वाजयन्तः) अर्चन्तः, भवत इति शेषः। वाजयति अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। (दुर्यम्) गृहम्, गृहवत् शरणभूतम्। दुर्याः इति गृहनामसु पठितम्। निघं० ३।४। (अग्निम्) तम् अग्रनायकं परमेश्वरम् (वः) युष्माकम् (वचः) स्तुतिवचनं, प्राप्नोतु इति शेषः। अहमपि तं जगदीश्वरम् (शूषस्य मन्मभिः३) बलस्य सुखस्य वा स्तोत्रैः, सबलैः सुखजनकैर्वा स्तोत्रैरित्यर्थः। शूषम् इति बलनाम सुखनाम च। निघं० २।९, ३।६। मन्मभिः मननीयैः स्तोमैः इति निरुक्तम् १०।५। (स्तुषे) स्तौमि। ष्टुञ् धातोर्लेटि उत्तमैकवचने रूपम् ॥७॥
भावार्थः
सर्वेषां हृदयेऽतिथिरूपेण विराजमानो भक्तवत्सलः परमेश्वरः सर्वैरेव जनैः स्तुतिवचोभिरभिनन्दनीयः ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।७४।१, साम० १५६४। २. वः, बहुवचनमिदमेकवचनस्य स्थाने द्रष्टव्यम्, त्वाम्—इति वि०। वः यूयम्—इति भ०, सा०। ३. शूषस्य बलस्य मन्मभिः स्तुतिभिः, बलसम्बन्धिनीभिः स्तुतिभिरित्यर्थः—इति वि०। शूषस्य शूषाय सुखार्थम्—इति भ०। शूषस्य सुखस्य लाभाय—इति सा०।
इंग्लिश (3)
Meaning
O men, Ye always worship God, who pervades all His subjects and is loved by all. For Ye, I expatiate on Him, the Abode of happiness, with words of Vedic verses.
Translator Comment
$ The word Atithi अतिथि been used for God, as He is respected by all like a guest, or pervades all His subjects as a learned guest goes to the house of each house-holder.^I: a learned person. It is the bounden duty of learned persons to preach to humanity the Vedic doctrines.
Meaning
O people of the world, seekers of light and advancement by every community for every community, for the sake of you all, with sincere thoughts and resounding words, I adore Agni, holy power, your homely friend loved by all for the common good. (Rg. 8-74-1)
Translation
O adorable Lord, desirous of strength and food, we glorify you with hymns for the attainment of happiness. You are dear and familiar friend and dear like a venerable guest in every house.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वः) તું (वाजयन्तः) પોતાના આત્મબળને ચાહવાના કારણે (विशः विशः) પ્રત્યેક મનુષ્યની (अतिथिः) સદા સાથે પ્રાપ્ત પૂજ્ય (पुरुप्रियम्) બહુ જ પ્રિય (वः शूषस्य दुर्यम् अग्निम्) તમારા સુખ-કલ્યાણનું ઘર પરમાત્માને (मन्मभिः वचः) મનનીય વચનો દ્વારા તેના ગુણચિંતનનું સ્તુતિ વચનો દ્વારા (स्तुषे) સ્તુતિ કરો. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મનુષ્યોએ પોતાના આત્મબળની વૃદ્ધિ માટે સુખ-શાન્તિના ધામ , સદાના સાથી પૂજ્ય પરમાત્માની તેના ગુણચિંતન વચનોથી સ્તુતિ કરવી જોઈએ. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہمارا اعلےٰ ترین مہان اور محافظ!
Lafzi Maana
ہے منشیو! (واجنیتا) ادھیاتمک دھن اور بل گیان آدی کی اِچھا کرتے ہو، (وہ وِشہ وِشہ) تم سب پرجاؤں کے (اتتھم پرو پریمِ) معزز ترین مہان، سب کے پیارے اور (دُوریم) تمہارے شریر اور گھریلو زندگی کے محافظ (اگنم) سنسار کے اگُوا پرمیشور کے لئے (وچ سُتشے) میں حمد و ثنا کر رہا ہوں اور (شوُشسیہ منم بھی) سُکھدائیک منتروں کے ذریعے اُس کا گُن گان کر رہا ہوں۔
Tashree
جو دُنیا کی اگوانی میں اگنی نام سے رہتا ہے،
سب کا پوُجیہ پیارا اتتھی وہی حفاظت کرتا ہے۔
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांच्या हृदयात अतिथी रूपाने विराजमान भक्तवत्सल परमेश्वराचे सर्व माणसांनी स्तुतिवचनांनी अभिनंदन केले पाहिजे. ॥७॥
तमिल (1)
Word Meaning
வெகு பிரியமான எல்லா பிரஜைகளின் (அதிதியான) உங்கள் நன்மையை நாமே எல்லா வன்மையுடன் பலத்திற்கு மனோதுதிகளால் துதி செய்கிறோம்.
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