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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 88
ऋषिः - पूरुरात्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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बृ꣣हद्व꣢꣫यो꣣ हि꣢ भा꣣न꣡वेऽर्चा꣢꣯ दे꣣वा꣢या꣣ग्न꣡ये꣢ । यं꣢ मि꣣त्रं꣡ न प्रश꣢꣯स्तये꣣ म꣡र्ता꣢सो दधि꣣रे꣢ पु꣣रः꣢ ॥८८॥
स्वर सहित पद पाठबृ꣣ह꣢त् । व꣡यः꣢꣯ । हि । भा꣣न꣡वे꣢ । अ꣡र्च꣢꣯ । दे꣣वा꣡य꣢ । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । यम् । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्रं꣢ । न । प्र꣡श꣢꣯स्तये । प्र । श꣣स्तये । म꣡र्ता꣢꣯सः । द꣣धिरे꣢ । पु꣣रः꣢ । ॥८८॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहद्वयो हि भानवेऽर्चा देवायाग्नये । यं मित्रं न प्रशस्तये मर्तासो दधिरे पुरः ॥८८॥
स्वर रहित पद पाठ
बृहत् । वयः । हि । भानवे । अर्च । देवाय । अग्नये । यम् । मित्रम् । मि । त्रं । न । प्रशस्तये । प्र । शस्तये । मर्तासः । दधिरे । पुरः । ॥८८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 88
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में मनुष्य को परमात्माग्नि की अर्चना के लिए प्रेरित किया गया है।
पदार्थ
हे मनुष्य ! तू (भानवे) आदित्य के समान भास्वर, (देवाय) दिव्य गुण-कर्मों से युक्त (अग्नये) परमात्मा के लिए (बृहत्) बड़ी (वयः) आयु को (अर्च) समर्पित कर, (यम्) जिस परमात्मा को (मित्रं न) मित्र के समान (प्रशस्तये) प्रशस्त जीवन के लिए (मर्तासः) उपासक मनुष्य (पुरः) सम्मुख (दधिरे) स्थापित करते हैं ॥८॥ इस मन्त्र में मित्रं न में उपमालङ्कार है ॥८॥
भावार्थ
जो जगत् के नेता, उत्कृष्ट ज्ञानी, सदाचार-प्रेमी महान् लोग होते हैं, वे सदा ही परमात्मा को संमुख रखकर और उससे शुभ प्रेरणा प्राप्त करके सब कार्य करते हैं, जिससे उनकी प्रशस्ति और ख्याति सब जगह फैल जाती है। वैसे ही हे नर-नारियो ! तुम्हें भी चाहिए कि अपनी सम्पूर्ण आयु दिव्य गुण-कर्मोंवाले, ज्योतिष्मान् परमात्मा को समर्पित करके उसकी प्रेरणा से कर्त्तव्य कर्मों में बुद्धि लगाकर संसार में प्रशस्ति प्राप्त करो ॥८॥
पदार्थ
(भानवे देवाय-अग्नये) स्वयं प्रकाशस्वरूप अन्यों को प्रकाशित करने वाले परमात्मदेव के लिये (बृहद्-वयः-हि) अधिक से अधिक जीवनकाल अवश्य (अर्च) हे उपासको! अर्चित करो क्योंकि (मर्तासः प्रशस्तये) मरणशील—जन्ममरण में आए जन अपनी कल्याण प्राप्ति के लिये (यं मित्रं न) जिसको मित्र के समान (पुरः-दधिरे) सम्मुख लक्ष्य में रखते हैं।
भावार्थ
संसार में जन्ममरण चक्र में पड़े जनों की प्रशस्ति—कल्याण भावना का नितान्त सहारा मित्र के समान साक्षात् परमात्मा ही है शोक दुःख ताप से ऊपर उठाए रखता है अतः प्रसिद्ध प्रकाशमान परमात्मा के लिये अपने जीवनकाल का अधिकाधिक भाग उसकी अर्चना में अर्पित करे, बाल्यकाल में तो उसका ध्यान सम्भव नहीं है, वृद्धावस्था में कुछ ही सम्भव है अधिक नहीं, अशक्ति और रोगों के कारण, अतः केवल यौवनकाल से ही उसकी आराधना का अभ्यासी बनना चाहिए वृद्धावस्था में भी वह अभ्यास साथ देगा ही॥८॥
विशेष
ऋषिः—आत्रेयः पुरुः (यहाँ ही—इसी जीवन में तृतीय मोक्षधाम का साधक बहुत यत्नशील अपने में परमात्मा को पूरण करने वाला)॥<br>
विषय
जीवन ज्ञान के लिए
पदार्थ
इस मन्त्र के ऋषि ‘पुरु' हैं - अपना पालन व पूरण करनेवाले, आसुर वृत्तियों से अपनी
रक्षा करनेवाले और अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले। अपने समान उपासको को प्रेरणा देते हैं कि (बृहद् वयः) = इस बड़े जीवन को, वृद्धिशील व विस्तृत जीवन को (हि)= निश्चय से (भानवे)=दीप्ति के लिए अर्पित करो, अपना समय ज्ञान प्राप्ति में लगाओ। यही वास्तव में ज्ञानी-भक्त बनने का प्रकार है। ज्ञान-प्राप्ति में जीवन को अर्पित करके उस देवाय = ज्ञान की ज्योति से जगमग, द्योतमान (अग्नये) = सबसे अग्रस्थान में स्थित परमेष्ठी प्रभु के लिए अर्च= उपासना कर। प्रभु की उपासना का प्रकार प्रभु-जैसा बनना ही है। प्रभु ज्ञानमय, ज्ञान के पुञ्ज, शुद्ध और चिद्रूप हैं, जीव भी ज्ञान यज्ञ से प्रभु की अर्चना कर पाता है।
किस प्रभु की अर्चना करनी है? इस प्रश्न का उत्तर इन शब्दों में है कि (यम्) = जिस प्रभु को (मर्तासः)=संग्राम में बारम्बार मरनेवाले पुरुष (मित्रं न) = मित्र के समान (पुरः)= सामने (दधिरे) = स्थापित करते हैं। इस संसार में मानवमात्र का आसुर वृत्तियों से एक संघर्ष चल रहा है। उस संघर्ष में मनुष्य स्वयं जीत नहीं पाता। जीतने की तो बात ही क्या यह तो बार-बार मृत्यु का शिकार होता है। अन्त में यह अनुभवी और ज्ञानी बनकर इस प्रभु को सामने करता है। ये प्रभु (मि-त्र) = प्रमिति=मृत्यु से उसकी रक्षा करते हैं। ऐसा होनेपर मनुष्य आसुर वृत्तियों का शिकार होने से बच जाता है और उसका जीवन (प्रशस्तये) = उत्तमता के लिए होता है। अपने जीवनों को उत्तम बनाने का साधन यही है कि हम प्रभु को सदा अपने सामने रक्खें। वे प्रभु हमारी ढाल हैं, जो हमें सब आक्रमणों से सुरक्षित कर देते हैं। उस समय हमपर 'काम, क्रोध, लोभ' तीनों ही आक्रमण करने में विफल होते हैं और हम 'आत्रेय' इन तीनों से रहित होते हैं [अविद्यमानाः त्रयो यस्य] ।
भावार्थ
हमारा जीवन ज्ञान यज्ञ के लिए अर्पित हो तथा प्रभुरूपी ढाल हमें कामादि के वार से सुरक्षित करे।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( भानवे ) = भानु, कांतिस्वरूप ( देवाय ) = सब के प्रकाशक ( अग्नये ) = अग्नि के लिये ( बृहद् ) = सब से बड़ा ( वयः१ ) = अन्नभाग या आयु का भाग ( अर्च ) = भक्तिरूप में दे । ( यं ) = जिसको ( प्रशस्तये ) = उत्तम कीर्ति होने के कारण ( मर्त्तासः ) = मनुष्य लोग ( मित्रम् इव ) = अपने हृदय के इष्ट मित्र, स्नेही के समान ( पुरः ) = सदा अपनी चक्षुओं के आगे ( दधिरे ) रखते हैं ।
टिप्पणी
८८ -‘प्रशस्तिभिर्मर्त्तासो' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - पुरुरात्रेय:।
छन्द: - अनुष्टुप् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्माग्नेरर्चनाय मानवं प्रेरयन्नाह।
पदार्थः
हे मानव ! त्वम् (भानवे) आदित्यवद् भासमानाय, (देवाय) दिव्यगुणकर्मयुक्ताय (अग्नये) परमात्मने (बृहत्) दीर्घम् (वयः) आयुः (अर्च२) समर्पय, (यम्) परमात्मानम् (मित्रं न) सखायम् इव (प्रशस्तये) प्रशस्तजीवनाय (मर्तासः) उपासकाः मनुष्याः (पुरः) पुरस्तात् (दधिरे) स्थापयन्ति। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः अ० ३।४।६ इति सूत्रेण वेदे वर्तमानाद्यर्थेऽपि लिटः प्रयोगः सम्मतः ॥८॥३ अत्र मित्रं न इत्युपमालङ्कारः ॥८॥
भावार्थः
ये जगन्नेतारः सुज्ञाः सदाचरणप्रिया महान्तो जना भवन्ति ते सदैव परमात्मानं पुरतो निधाय ततः सत्पेरणां च प्राप्य सर्वाणि कार्याणि कुर्वन्ति, तेन तेषां प्रशस्तिः ख्यातिश्च सर्वत्र प्रसरति। तथैव हे नरा नार्यश्च ! युष्माभिरपि स्वकीयं सर्वमायुर्दिव्यगुणकर्मयुक्ताय ज्योतिष्मते परमात्मने समर्प्य तत्प्रेरणया कर्त्तव्येषु कर्मसु मतिं कृत्वा लोके प्रशस्तिः प्राप्तव्या ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ५।१६।१, प्रशस्तये इत्यत्र प्रशस्तिभिर् इति पाठः। २. अर्च प्रयच्छ—इति भ० सा०। बृहत् महत् वयः अन्नम् अर्च पूजय, संस्कुरु इत्यर्थः—इति वि०। बृहत् महत् वयः प्रदीपकं तेजः यथा स्यात् तथा हि अर्च पूजय—इति ऋ० ५।१६।१ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दस्वामिनाऽस्मिन् मन्त्रे विद्युद्विषयः प्रतिपादितः।
इंग्लिश (3)
Meaning
Sing praise for a major part of life for the Refulgent and Illuminating God, Whom men always keep in view for their eulogy.
Meaning
For heat and light, energy and power, and for vision and excellence in life, study, develop and revere that mighty inexhaustible Agni with vast and rich inputs, which, like a friend, people have lighted and instituted as a prime and divine power with high praise and celebrations since the earliest times. (Rg. 5-16-1)
Translation
Sing abundant devotional praises to the divine and radiant adorable God, whom men, by laudations, assign the foremost place, as given to a dearest friend.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (भानवे देवाय अग्नये) સ્વયં પ્રકાશસ્વરૂપ તથા અન્યોને પ્રકાશિત કરનાર પરમાત્મા દેવને માટે (बृहद् वयः हि) અધિકથી અધિક જીવનકાળ અવશ્ય (अर्च) હે ઉપાસકો ! અર્ચિત કરો , કારણ કે (मर्तासः प्रशस्तये) મરણશીલ જન્મ-મરણમાં આવેલા જનો પોતાના કલ્યાણની પ્રાપ્તિ માટે (यं मित्रं न) જેને મિત્રની સમાન (पुरः दधिरे) સન્મુખ લક્ષ્યમાં રાખે છે.
भावार्थ
ભાવાર્થ : સંસારમાં જન્મ-મરણના ફેરા-ચક્કરમાં પડેલાં મનુષ્યોની પ્રશસ્તિ-કલ્યાણ ભાવનાનો નિતાંત સહારો મિત્રની સમાન પરમાત્મા જ છે. તે શોક , દુઃખ , તાપથી ઉપર ઉઠાવી રાખે છે , તેથી પ્રસિદ્ધ પ્રકાશમાન પરમાત્માને માટે પોતાના જીવનકાળનો અધિકાધિક ભાગ તેની અર્ચનામાં અર્પિત કરવો જોઈએ ; કારણ કે બાળપણમાં તો તેનું ધ્યાન સંભવ નથી , વૃદ્ધાવસ્થામાં અશક્તિ અને રોગોના કારણે અલ્પસંભવ છે અધિક નહિ , તેથી માત્ર યૌવનકાળ-જુવાનીમાં જ તેની આરાધનાના અભ્યાસી બનવું જોઈએ , જેથી વૃદ્ધાવસ્થામાં પણ તે અભ્યાસ સાથ આપશે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
دولتِ جاوید باشد بندگی
Lafzi Maana
(نا) جیسے ایک دوست (مِترم) اپنے دوسرے دوست کی (پرشیتئے) نیکیوں، خوُبیوں یا سدگنُوں کو (پرُہ) ہمیشہ اپنے سامنے رکھتا ہے، ویسے (مرتاسہ) مرن دھرما منش (یم پرشستئے) جس اگنی دیو پرمیشور کو، اُس کی مہما کو (پُرہ) اپنے سامنے (ددھرے) رکھتے ہیں۔ ویسے ہے عابد! توُ بھی اُس پرمیشور کو سدا دھیان میں رکھتے ہوئے (بھانوے) سوُرج کی طرح منّور (اگنے دیوائے) پرمیشور دیو کے لئے (ہی برہدویہ) نشچے پوُروک اپنی عمر عزیز کو، (ارچ) اُس کے لئے صرف کر دے۔
Tashree
دولتِ جاوید باشد بندگی،
بندگی کن بندگی کن بندگی۔
मराठी (1)
भावार्थ
जे जगाचे नेते, उत्कृष्ट ज्ञानी, सदाचार-प्रेमी महान लोक असतात, ते सदैव परमात्म्याला समोर ठेवून त्याच्यापासून शुभ प्रेरणा प्राप्त करून सर्व काम करतात. ज्यामुळे त्यांची प्रशंसा व ख्याती सर्वत्र पसरते, तसेच स्त्री-पुरुषांनो, तुम्हीही संपूर्ण आयु दिव्य गुणकर्मयुक्त, ज्योतिष्मान परमात्म्याला समर्पित करून त्याच्या प्रेरणेने कर्तव्य कर्मांमध्ये बुद्धी वापरून संसारात प्रशंसा प्राप्त करा. ॥८॥
तमिल (1)
Word Meaning
துதிகளுக்கு (மித்ரனை)ப் போல் முதன்மையான நிலயங்களில் நிலையாக்கப்பட்ட தேவர்க்கு சோதியான அக்னிக்கு மகத்தான வாழ்நாட்களை அளிக்கவும்.
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