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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - हृद्रोगः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - हृद्रोगकामलाशन सूक्त
    1

    सुके॑षु ते हरि॒माणं॑ रोप॒णाका॑सु दध्मसि। अथो॒ हारि॑द्रवेषु ते हरि॒माणं॒ नि द॑ध्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सुके॑षु । ते॒ । ह॒रि॒माण॑म् । रो॒प॒णाका॑सु । द॒ध्म॒सि॒ । अथो॒ इति॑ । हारि॑द्रवेषु । ते॒ । ह॒रि॒माण॑म् । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुकेषु ते हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि। अथो हारिद्रवेषु ते हरिमाणं नि दध्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुकेषु । ते । हरिमाणम् । रोपणाकासु । दध्मसि । अथो इति । हारिद्रवेषु । ते । हरिमाणम् । नि । दध्मसि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोगनाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सुकेषु) उत्तम-उत्तम उपदेशों में और (रोपणाकासु) लेप आदि क्रियाओं में (ते) तेरे (हरिमाणम्) सुख हरनेवाले शरीररोग को (दध्मसि) हम रखते हैं। (अथो) और भी (हारिद्रवेषु) रुचिर रसों में (ते) तेरे (हरिमाणम्) चित्तविकार को (नि) निरन्तर (दध्मसि) हम रखते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    सद्वैद्य बाहिरी शारीरिक रोगों को यथायोग्य ओषधि और लेप आदि से और भीतरी मानसिक रोगों को उत्तम-उत्तम ओषधिरसों से नाश करके रोगी को स्वस्थ करें ॥४॥ यह मन्त्र ऋ० १।५०।१२। में कुछ भेद से है, वहाँ (सुकेषु) के स्थान में [शुकेषु] है। और सायणभाष्य में भी [शुकेषु] माना है। परन्तु तीनों अथर्वसंहिताओं में (सुकेषु) पाठ है, वही हमने लिया है। सायणाचार्य ने [शुक] का अर्थ तोता पक्षी और [रोपणाका] का [काष्ठशुक] नाम हरिद्वर्ण पक्षी अथर्ववेद में और [शारिका पक्षी विशेष] अर्थात् मैना ऋग्वेद में और (हारिद्रव) का अर्थ [गोपीतनक नाम हरिद्वर्ण] [पक्षी] अथर्ववेद में और [हरिताल का वृक्ष] ऋग्वेद में किया है। इस अर्थ का यह आशय जान पड़ता है कि रोगविशेषों में पक्षीविशेषों को रोगी के पास रखने से भी रोग की निवृत्ति होती है ॥

    टिप्पणी

    ४−सुकेषु। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति सु०+कै+शब्दे, यद्वा, कच दीप्तौ−ड। उत्तमेषु शब्देषु। उपायकथनेषु। हरिमाणम्। म० १। रोगजनितं हरिद्वर्णम्, सुखहरणशीलं रोगं शारीरिकं हार्दिकं वा। रोपणाकासु। रोपण−आकासु। रुह प्रादुर्भावे, णिच्−ल्युट्, हस्य पः। व्रण रोगे मांसाङ्कुरजननार्थक्रियादिकम् इति रोपणम्, ततः, आ+कम कान्तौ−ड ॥ “रोपणं समन्तात् कामयन्ति तासु क्रियासु लिप्तास्वोषधिषु”−इति श्रीमद्दयानन्दभाष्यम् ऋ० १।५०।१२। दध्मसि। म० १। वयं धारयामः, स्थापयामः। हारिद्रवेषु। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति हृञ् हरणे−इञ्। हरति रोगमिति हारिः, रुचिरः, मनोहरः। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति द्रु द्रवणे स्रवणे−अप्। इति, द्रवः, रसः। रुचिररसेषु। नि। नियमेन ॥

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    विषय

    हरिमा का उचित स्थान [तोते व पौधे]

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रों के अनुसार सूर्य-किरणों व कपिल वर्ण की गौओं के दूध के प्रयोग से रुधिर की कमी के कारण होनेवाली पीतिमा [हरिमा] को दूर करके मनुष्य को नौरोग बनाने का विधान है। यहाँ वेद काव्यमय भाषा में कहता है-(ते हरिमाणम्) = तेरी इस हरिमा को (शुकेषु) = तोतों में (दध्मसि) = धारण करते हैं और (रोपणाकासु) = ओषधिविशेषों में धारण करते हैं। तोतों में और इन ओषधियों में यह हरिमा रोगरूप से प्रतीत नहीं होती, अत: इस हरिमा का स्थान इनमें ही है। अपने स्थान पर यह शोभा का कारण बनती है। मानव-शरीर में यह रोग की सूचना देती है। २. (अथ उ) = और अब (ते हरिमाणम्) = तुझमें रहनेवाली इस हरिमा को तुझसे दूर करके (हारिद्रवेषु) = कदम्ब के वृक्षों में (निदध्मसि) = निश्चय से स्थापित करते हैं। यह हरिमा इन वृक्षों की शोभा-वृद्धि का कारण बनती है।

    भावार्थ

    हरिमा तोतों में, रोपणा नामक ओषधिविशेषों में तथा कदम्ब-वृक्षों में शोभा का कारण होती है, अत: इसे वहीं स्थापित करते हैं। मानव-शरीर इसका स्थान नहीं है, वहाँ तो यह रोग की सूचना देती है।

    विशेष

    यह सूक्त सूर्योदय के समय की अरुण किरणों व कपिला गौओं के दूध के प्रयोग से हृद्रोग व हरिमा के दूर करने का प्रतिपादन कर रहा है। इसीप्रकार अगला सूक्त श्वेतकुष्ठ के दूरीकरण के लिए औषध-विशेष का प्रतिपादन करता है |

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    भाषार्थ

    (ते) तेरे (हरिमाणम्) हरेपन को (शुकेषु) सिरीष वृक्षों में, (रोपणाकासु) तथा रोपण करनेवाली लताओं में (दध्मसि) हम स्थापित करते हैं। (अथो) तथा (हारिद्रवेषु) हरिद्रु अर्थात् हरिद्रा अर्थात् हरड़ के आयुर्वेदिक योगों में (ते हरिमाणम्) तेरे हरेपन को (नि दध्मसि) हम निहित करते हैं ।

    टिप्पणी

    [हरित् पद पीतवर्ण के लिए भी प्रयुक्त होता है (आप्टे कोष)। अतः हरिमा पद सम्भवत: पीतार्थक हो। तथा पीत ही कालान्तर में हरे वर्ण में परिणत हो जाता है। गाढ़ा पीतवर्ण ही सूर्यरश्मियों के सन्निधान में हरा हो जाता है। रोपणाकासु= रोपणं कुर्वन्तीति रोपणाकाः लताः, तामु। रोपण= चिकित्सा करना। सिरीषवृक्ष सम्भवतः हरेपन की औषध हो। सिरीष का अभिप्राय है इसकी जड़, फूल, पत्ते तथा स्वरस आदि।]

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    विषय

    हृद्रोग और कामला की चिकित्सा

    भावार्थ

    हे व्याधिपीडित पुरुष ! ( सुकेषु ) उत्तम सुख देने वाले कर्मों या शुक नाम वृक्षों में और ( रोपणाकासु ) घाव आदि दूर करके व्रण भरने वाली रोहिणी नामक ओषधियों के भीतर ही ( ते ) तुझ रोगी को ( दध्मसि ) रखते हैं ( अथो ) और (ते) तेरे (हरिमाणं) पाण्डु रोग को भी ( हारिद्रवेषु ) रोगहारी द्रव पदार्थों में (नि दध्मसि) रखते हैं। अथवा ( ते हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ) तेरे बलहारी हरिमा रोग को बलकारी ओषधियों के बल पर हम रोकते हैं, वश करते हैं, ओर इसी प्रकार ( ते हरिमाणं हारिद्रवेषु नि दध्मसि ) तेरे रोग को कष्टहारी रसों के बलपर दमन करते हैं।

    टिप्पणी

    सायण ने इस मन्त्र में हारिद्र रोग को तोता, खुटबढ़ई और हारिद्रव नामक पक्षियों में लगा देने का अर्थ किया है वह नितरां असंगत है । सूक्त का तात्विक अभिप्राय इस प्रकार है कि हृद्योत और हरिमा दो रोग हैं उनकी चिकित्सा के लिये सूर्य की रक्तवर्ण की किरणों के प्रयोग का और कुछ ओषधिवर्ग का भी उपदेश है। जिनमें गो, रोहित रोहिणी, सुक या शुक, रोपणाका, हारिद्रव, ये शब्द चिकित्सा कारक ओषधि और उपायों के वाचक हैं। हृद्रोग के विषय में वाग्भट अष्टांग संग्रह ( हृद्रोग निदान अ० ५ ) में लिखते हैं कि ‘ पांच प्रकार का हृदय रोग होता है वातज, पितज, कफज, त्रिदोषज, और कृमियों से । इनके भिन्न २ लक्षण प्रकट होते हैं। इसी प्रकार पाण्डुरोग का एक विकृत रूप हलीमक है। उसमें शरीर हरा नीला पीला हो जाता है । उसमें सिर में चक्कर, प्यास, निद्रानाश, अजीर्ण और ज्वर आदि दोष अधिक हो जाते हैं। इनकी चिकित्सा में रोहिणी और हारिद्रव और गोक्षीर का प्रयोग दर्शाया गया है। रोहित, रोहिणी, रोपणाका, यह एक ही वर्ग प्रतीत होता है। हारिद्रव हल्दी और इसके समान अन्य गांठ वाली ओषधियों का ग्रहण है। शुक भी एक वृक्षवर्ग का वाचक है। शुक= शिरीष, स्थौणेयक और तालीश पत्र इसी प्रकार गन्धक, चक्रमर्दा स्योनाक, जम्बू, अर्क, दाडिम, शिग्रु, और क्षीरी वृक्ष शुकवर्ग में जाते हैं इन के गुण इस प्रकार हैं ( १ ) शिरीष (वर्ण्यः, कुष्टकण्डूघ्नः, त्वग्दोषश्वासकासहा ) अर्थात् शरीर की त्वचा के रंग, कोढ़ और खाज और त्वचा के दोष, सांस, कास आदि का नाशक है । ( २ ) स्थौणेयक कटुतिक्त, पित्त प्रकोपशमन, बलपुष्टिकारक है। ( ३ ) तालीशपत्र तिक्तोष्ण कफतावघ्न, कास हिक्का क्षय, श्वास आदि का नाशक है । ( ४ ) गन्धक विषघ्न, कुष्ठ, कण्डू, खर्जू त्वचादोष का नाशक और जाठराग्नि बढ़ाने वाला है ( ५ ) चक्रमर्दा, कटु, उष्ण, वातकफनाशक, कान्ति और सौकुमार्य करती है। ( ६ ) स्योनाक पित्त, श्लेश्म, आमवात, अतिसार, कास, अरुचि का नाशक है । (७) जम्बू रोहिणी शोषहर, कृमिदोषनाशक, श्रमपित्त, दाह, नाशक और श्वासकासहर है, ( ८ ) अर्क- तिक्त, उष्ण, परम रक्तशोधक, कण्डू, व्रणहर, जन्तुनाशक, कुष्ट, प्लीहा, शोष, विसर्प, उदररोग, और व्रण का विनाशक है। राजार्क, शुक्लार्क श्वेतमन्दार आदि भी इसके भेद हैं। इसे वेद में सूर्य कहा है। (९) दाडिम कास वात कफ और पित्त का नाशक है (१०) शिग्रु तिक्त, कटु, उष्ण, कफ, शोफ, वायुनाशक, क्रिमि, आम, और विष, का नाशक, विद्रधि, प्लीहा और गुल्म का नाशक है । (११) क्षीरी रुचिकर वातनाशक, पित्त, हृद्रोग नाशक, तर्पक, वृष्य और प्रमेहनाशक हैं। रोहिणी वर्ग में जम्बू-रोहितक, रोहिण या वट, कटुक, काश्मर्य, मंजिष्ठ, मांसी और हरीतिकी ये वृक्ष हैं। सूर्य वर्ग में अर्क, उपविष, क्षीरपर्णी, समस्त नक्षत्र वृक्ष, सुवर्चला, सूर्यकान्त, ऐन्द्री सूर्यादि दाह, आतप आदि पदार्थ हैं। इनके गुण ये हैं (१) जम्बू पहले लिख आये, (२) रोहितक=शाल्मली विशेष । यकृत्, प्लीहा, गुल्म, उदर, शोष नाशक, कटु और उष्ण, विषवेगनाशक, कृमिदोष, व्रण और नेत्र रोग का नाशक है । ( ३ ) कटुक:-तिक्त, पित्तदोष नाशक, कटु, कफ, अरोचक, और विषमज्वर, हृदयरोग का नाशक है। (४) काश्मर्य-तिक्त, गुरु, उष्ण, रक्तपित्त नाशक, त्रिदोषनाषक, श्रम, दाह, पीड़ा, ज्वर तृष्णा, और विष का नाशक, वृष्य, बलकारी, शोफनाशक । (५) मंजिष्ठ-कषाय, उष्ण, कफ, उग्र व्रण, प्रमेह रक्तपित्त, विष, और नेत्र रोगों का नाश करता है। (६) मांसी स्वादु,कषाय, कास पित्त रक्त नाशक, विषनाशक, मारुत हृद्रोग नाशक बलकारी, त्वचा का कान्तिदायक, भूत और दाह का नाशक प्रसन्नताका उत्पादक। इसीका भेद गन्धमांसी है वह भी रक्तपित्तनाशक, वर्णकारी, विष भूतज्वर आदि का नाशक है। इसी का भेद आकाशमांसी जो शोफ, व्रण, नाडीरोग मकडी, गर्दभजालादि का नाशक है और वर्णकारी है । (७) हरीतकी—आमा, चेतकी, पथ्या, पूतना और हरीतिकी इतनी भेदों वाली है । वह उदररोग, मूत्ररोग, प्रमेह, पथरी, वात, पित्त, कफ का नाशक है और जया नाम की हरीतकी गुल्मरोग, प्लीहा, रक्तातिसार, और पित्त का नाशक है और हैमवती सर्व रोगनाशक, नेत्ररोग नाशक है यही प्रमेह, कोढ़ व्रण आदि का भी नाश करती है । ( १ ) सूर्यवर्ग में अर्क के गुण पूर्व लिख दिये हैं ( २ ) उपविष एक वर्ग है जिसमें अफूक, अर्क, करवीर, कलिकारी, काकादनी, धत्तूर और अतिविषा, शरभ और खद्योत ये ओषधियां गिनी गई हैं । नक्षत्र वृक्षों में विषमुष्टी, स्थामली, औदुम्बर, जम्बू, अगरु, वेणु, पिप्पल, चम्पक, वट, पलाश, पायरी या प्लक्ष, जाती, बिल्व, अर्जुन, बबूल, नागपुष्प, मोच, रालवृक्ष, वेत, निचुल अर्क, शमी, कदम्ब, आमरिष्ट मोहवृक्ष, इतनी वृक्षोषधियां हैं। क्षीरपर्णी अर्क को कहते हैं । सुवर्चला=आदित्यभक्ता, मण्डूकपर्णी आदित्यलता कहाती हैं जो कटु, उष्णा, स्फोटकनाशनी है और त्वग्दोष, कण्डू, ब्रण, कुष्ठ, भूतग्रह, उग्र शीत और ज्वर का नाश करती है। इसका एक भेद ब्राह्मी है। वह भी कुष्ट, पाण्डु प्रमेह, और रक्त का नाशक है। इसका एक भेद क्षुद्रपत्रा है, वह शोफ नाशक है। सूर्यकान्त के तीन भेद हैं—स्फटिक, सूर्यकान्त और वैक्रान्त (विल्लौर) इनमें स्फटिक-पित्त, दाह, और पीड़ा का नाशक है। सूर्यकान्त-उष्ण निर्मल रसायन है और वातश्लेश्मनाशक है। वैक्रान्त मणि क्षय, कुष्ठ और विष का नाशक, पुष्टिप्रद और रसायन है । ऐन्द्री वर्ग में देवसर्षप और इलायची है । ऐन्द्री-कृमि, श्लेष्म और व्रण का नाशक है, वह सब उदररोगों को भी नाश करती है। सूर्यादि दाह और आतप कटु स्वभाव, रूक्ष हैं। इत्यादि समस्त ओषधिवर्ग का हमने संग्रह कर संक्षेप से गुण दर्शा दिये हैं, वे सभी समान स्वभाव, समान गुण और वात, पित्त, कफ हृद्रोग, रक्त, नेत्ररोग, त्वचारोग, कुष्ट, ब्रण आदि के विनाशक हैं वेद ने हृद्रोग और पण्डूरोग के विनाश के लिये इन ओषधियों का संकेत से वर्णन किया है। इति दिक्। ‘शुकेषु मे’ इति पाठः ऋ०। क्वचित क्वचिदादर्शपुस्तकेषु च ‘शुकेषु’ इत्येव पाठ उपलभ्यते [ शं० पा० ]।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । सूर्यो मन्त्रोक्तो हरिमा हृद्रोगश्च देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Heart Trouble and Jaundice

    Meaning

    We treat you by removing your paleness by exposure to fresh gardens, fruits and flowers, and soothing and healing salves of acacia, Zizyphus and yellow sandal.

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    Translation

    May the pale-green hué, the sign of weakness of my body, be transferred to enrich the beauty of parrots and the freshness of herbs. (Also Rg. 1.50.12).

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    Translation

    O' patient! we transfer (send away) your yellowness to curative and healing herbs and we send away your Jaundice to those things which cure such diseases.

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    Translation

    O patient, we control thy jaundice through the use of the seeds of shuka trees, and strong healing medicines. We cure thy jaundice through the use of efficacious mixtures.

    Footnote

    Shuka:- A family of trees, consisting of shirish (शिरीष), sthouneyak (स्थौनेयक), Talish (तालीश), Gandhak (गन्धक). Jambu (जम्बू), Arka (अर्क), Dadima (दाडिम),shigru(शिग्रु) kshirl (क्षीरी)"). Their leaves and seeds are beneficial for a patient of jaundice for curing heart diseases see Vagbhatta’s, Astangasamgroha Chapter V. Some commentators translate the verse thus, “To parrots and starlings we transfer thy sickly yellowness. Now in the yellow colored birds we lay this yellowness of thine.” As nature has endawed these birds with a yellow color, so yellowness should go to them and not remain in men, who should be free from it.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−सुकेषु। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति सु०+कै+शब्दे, यद्वा, कच दीप्तौ−ड। उत्तमेषु शब्देषु। उपायकथनेषु। हरिमाणम्। म० १। रोगजनितं हरिद्वर्णम्, सुखहरणशीलं रोगं शारीरिकं हार्दिकं वा। रोपणाकासु। रोपण−आकासु। रुह प्रादुर्भावे, णिच्−ल्युट्, हस्य पः। व्रण रोगे मांसाङ्कुरजननार्थक्रियादिकम् इति रोपणम्, ततः, आ+कम कान्तौ−ड ॥ “रोपणं समन्तात् कामयन्ति तासु क्रियासु लिप्तास्वोषधिषु”−इति श्रीमद्दयानन्दभाष्यम् ऋ० १।५०।१२। दध्मसि। म० १। वयं धारयामः, स्थापयामः। हारिद्रवेषु। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति हृञ् हरणे−इञ्। हरति रोगमिति हारिः, रुचिरः, मनोहरः। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति द्रु द्रवणे स्रवणे−अप्। इति, द्रवः, रसः। रुचिररसेषु। नि। नियमेन ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (সুকেষু) উত্তম উত্তম উপদেশ এবং (রোপণাকাসু) লেপনাদি ক্রিয়ার (তে) তোমার (হরিমাণম্) সুখ হরণকারী রোগকে (দসি) আমি রাখি। (অথো) এবং (হারি দ্রবেধু) মনোহর রসে (তে) তোমার (হরিমাণং) চিত্তবিকারকে (নি) নিরন্তর (দসি) রাখি।।

    भावार्थ

    উত্তম উত্তম উপদেশ দ্বারা ও লেপনাদি ক্রিয়া দ্বারা তোমার সুখ-নাশক রোগকে আমি নিবারণ করি। মনোহর ওষধি রস দ্বারা তোমার চিত্ত বিকারকে উপশম করি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    সুকেষু তে হরিমাণং রোপণাকাসু দসি। অথো হারি দ্রবেধু তে হরিমাণং নি দসি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। সূর্যঃ, হরিমা, হদ্রোগশ্চ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (রোগনাশোপদেশঃ) রোগনাশের জন্য উপদেশ

    भाषार्थ

    (সুকেষু) উত্তম-উত্তম উপদেশসমূহে এবং (রোপণাকাসু) প্রলেপ আদি ক্রিয়াসমূহে (তে) তোমার (হরিমাণম্) সুখ হরণকারী শরীররোগকে (দধ্মসি) আমরা স্থাপিত করি। (অথো) আরও (হারিদ্রবেষু) রুচির রসসমূহে (তে) তোমার (হরিমাণম্) চিত্তবিকারকে (নি) নিরন্তর (দধ্মসি) আমরা স্থাপিত করি॥৪॥

    भावार्थ

    সদ্বৈদ্য বাহ্যিক শারীরিক রোগসমূহকে যথাযোগ্য ঔষধি এবং প্রলেপ আদি দ্বারা এবং অভ্যন্তরীণ মানসিক রোগসমূহকে উত্তম-উত্তম ঔষধি রস দ্বারা নাশ করে রোগীকে সুস্থ করেন ॥৪॥ এই মন্ত্র ঋ০ ১।৫০।১২। এ কিছু ভেদপূর্বক রয়েছে। সেখানে (সুকেষু) এর স্থানে [শুকেষু] রয়েছে। এবং সায়ণভাষ্যেও [শুকেষু] মানা হয়েছে। কিন্তু তিনটি অথর্বসংহিতায় (সুকেষু) পাঠ রয়েছে, সেটিই আমি গ্রহণ করেছি। সায়ণাচার্য [শুক] এর অর্থ তোতা পাখি এবং [রোপণাকা] এর [কাষ্ঠশুক] নামক হরিৎ বর্ণ পাখি অথর্ববেদে এবং [শারিকা পাখি বিশেষ] অর্থাৎ ময়না ঋগ্বেদে এবং (হারিদ্রব) এর অর্থ [গোপীতনক নামক হরিৎ বর্ণ] [পাখি] অথর্ববেদে এবং [হরিতাল বৃক্ষ] ঋগ্বেদে অর্থ করেছেন। এই অর্থের এটি মূলভাব বোঝায় যে, রোগবিশেষে পক্ষীবিশেষকে রোগীর কাছে রাখলেও রোগের নিবৃত্তি হয় ॥

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    भाषार्थ

    (তে) তোমার (হরিমাণম্) সবুজ ভাবকে (শুকেষু) শিরীষ বৃক্ষে, (রোপণাকাসু) তথা রোপণকারী লতায় (দধ্মসি) আমি স্থাপিত করি। (অথো) তথা (হারিদ্রবেষু) হরিদ্রু অর্থাৎ হরিদ্রার অথবা হরিতকির আয়ুর্বেদিক যোগে (তে হরিমাণম্) তোমার সবুজ ভাবকে (নি দধ্মসি) আমি/আমরা নিহিত করি।

    टिप्पणी

    [হরিৎ পদ পীত/হলুদ বর্ণের জন্যেও প্রযুক্ত হয় (আপ্টে কোষ)। অতএব হরিমা পদ সম্ভবতঃ পীতার্থক। তথা হলুদ-ই কালান্তরে সবুজ বর্ণে পরিণত হয়ে যায়। গাঢ় হলুদ বর্ণই সূর্যরশ্মির সন্নিধানে সবুজ হয়ে যায়। রোপণাকাসু=রোপণং কুর্বন্তীতি রোপণাকাঃ লতাঃ, তাসু। রোপণ =চিকিৎসা করা। শিরীষ বৃক্ষ সম্ভবতঃ সবুজ ভাবের ঔষধ। শিরীষ এর অভিপ্রায় হলো এর মূল, ফুল, পাতা তথা স্বরস আদি।]

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