अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - असिक्नी वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
1
असि॑तं ते प्र॒लय॑नमा॒स्थान॒मसि॑तं॒ तव॑। असि॑क्न्यस्योषधे॒ निरि॒तो ना॑शया॒ पृष॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठआसि॑तम् । ते॒ । प्र॒ऽलय॑नम् । आ॒ऽस्थान॑म् । आसि॑तम् । तव॑ । असि॑क्नी । अ॒सि॒ । ओ॒ष॒धे॒ । नि: । इ॒त: । ना॒श॒य॒ । पृष॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असितं ते प्रलयनमास्थानमसितं तव। असिक्न्यस्योषधे निरितो नाशया पृषत् ॥
स्वर रहित पद पाठआसितम् । ते । प्रऽलयनम् । आऽस्थानम् । आसितम् । तव । असिक्नी । असि । ओषधे । नि: । इत: । नाशय । पृषत् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महारोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ओषधे) हे ओषधि ! (ते) तेरा (प्रलयनम्) लाभ (असितम्) निर्बन्ध वा अखण्ड है और (तव) तेरा (आस्थानम्) विश्रामस्थान (असितम्) निर्बन्ध है, (असिक्नी असि) और तू निर्बन्ध [सारवाली] है, (इतः) इस पुरुष से (पृषत्) [विकृत] चिह्न को (निर्णाशय) सर्वथा नाश कर दे ॥३॥
भावार्थ
सद्वैद्य विचार करे कि यह ओषधि पूर्ण लाभयुक्त है, यथायोग्य स्थान में उत्पन्न हुई है और सब अंशों में सारयुक्त है, ऐसी ओषधि के प्रयोग से रोगनिवृत्ति होती है ॥३॥
टिप्पणी
३−असितम्। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने−क्त। अथवा। षो अन्तकर्मणि=नाशने-क्त। नञ्समासः। अबद्धम्, अखण्डितम्। कृष्णवर्णम्−इति सायणः। प्र-लयनम्। प्र+लीङ् श्लेषे, प्राप्तौ−ल्युट्। प्रापणं, प्राप्तिः, लाभः। आ-स्थानम्। आङ्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−ल्युट्। विश्रामस्थानम्। तव। त्वदीयम्। असिक्नी। म० १। अबद्धा, सारवती। ओषधे। म० १। हे रोगनाशकद्रव्य ! अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥
विषय
असिक्नी का असिक्नीपन
पदार्थ
१. हे (ओषधे) = दोष-दहन करनेवाली ओषधे! (ते) = तेरा (प्रलयनम्) = लय व विनाश भी (असितम्) = काला है, अर्थात् तुझे जला देने पर तेरी भस्म भी सामान्यता अधिक काले वर्ण की होती है। (तव आस्थानम् असितम्) = तेरा स्थिति-स्थान भी काला है। सामान्यतः काली मिट्टी में ही यह पनपती है। २. हे ओषधे! तू सचमुच (असिक्नी असि) = काली है। इतः यहाँ से, इस रोगी पुरुष की त्वचा से (पृषत्) = इन धब्बों को (नि: नाशय) = सुदूर नष्ट कर दे।
भावार्थ
असिक्नी का असिकनीत्व इसी में हैं कि वह त्वचा के सफ़ेद धब्बे को दूर कर दे।
भाषार्थ
(ते) तेरी [जड़] के (प्रलयनम् ) लीन होने अर्थात् छिपने का स्थान (असितम् ) सित नहीं है, (तव) तेरा (आस्थानम् ) स्थित होने का स्थान (असितम्) सित नहीं है। (ओषध) हे ओषधि ! (असिक्नी असि) तूं भी असिक्नी है, सिता नहीं है। (इतः) इस रुग्ण से ( पृषत् ) सिंचित हुए श्वेत कुष्ठ को (निर् नाशय) निरवशेष रूप में तूं विनष्ट कर।
टिप्पणी
[ओषधि की जड़ काले स्थान पृथिवी के स्तर से नीचे है, वह सित नहीं है। तथा ओषधि की शाखाप्रशाखा के फैलने का स्थान भी पृथिवी का उपरिस्थल है, जोकि सित नहीं है। तथा ओषधि स्वयम् भी सिता नहीं है। असिक्नी= अशुक्ला (निरुक्त ६।८।२)। अशुक्ला= असिता, सितमिति वर्णनाम तत्प्रतिषेधोऽसितम् (निरुक्त ६।८।२)। निरुक्त में असिक्नी पद यद्यपि नदीवाचक है, और अथर्ववेद में रोगवाचक है, तथापि दोनों स्थानों में यौगिकार्थ समान ही है।
विषय
कुष्ठ और पलित चिकित्सा
भावार्थ
हे ओषधे ! (ते ) तेरा ( प्रलयनं ) शरीर में लीन हो जाने वाला गुण ( असित ) श्वेत रोग का नाशक है और ( तव ) तेरा ( आस्थानं ) चिपकने का गुण ( असितं ) सित या श्वेत कुष्ठ का नाशक है । हे ओषधे ! तू (असिक्नी) असिक्नी नाम वाली ( असि ) है (इतः) इस शरीर से (पृषत्) पीड़ाकारी या जल छोड़ने वाले विकृत या पृषत् अर्थात् श्वेत रंग के कुष्ट को (निर् नाशय ) सर्वथा नाश करदे ।
टिप्पणी
( प्रा० ) ‘निलयनम्’ इति तै० ब्रा० । ( च० ‘नाशया पृथक्’ इति सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। श्वेतलक्ष्मविनाशनाय ओषधिस्तुतिः। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
White Leprosy
Meaning
Your capacity to dissolve and resolve is unlimited. Your capacity to absorb is unlimited. O Asikni, such you are, remove all the white spots from this patient.
Translation
Dark is your place of repose and dark your dwelling. O herb, you yourself are dusky. May you make every spot disappear from this place.
Translation
Dark or black is the absorptive substance of the Asikni Rajani herb and dark is its glutinosity and this destroys the white speck.
Translation
O medicine, thy quality of absorption in the body removes leprosy, thy quality of sticking removes whiteness of the body. O medicine, highly efficacious art thou, remove from him the painful suppuration of the wound.
Footnote
Him refers to the patient.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−असितम्। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने−क्त। अथवा। षो अन्तकर्मणि=नाशने-क्त। नञ्समासः। अबद्धम्, अखण्डितम्। कृष्णवर्णम्−इति सायणः। प्र-लयनम्। प्र+लीङ् श्लेषे, प्राप्तौ−ल्युट्। प्रापणं, प्राप्तिः, लाभः। आ-स्थानम्। आङ्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−ल्युट्। विश्रामस्थानम्। तव। त्वदीयम्। असिक्नी। म० १। अबद्धा, सारवती। ओषधे। म० १। हे रोगनाशकद्रव्य ! अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(ওষধে) হে ওষধে! (তে) তোমার প্রলয়নম্) লাভ (অসিতম্) অভণ্ডনীয়। (তব) তোমার (আস্থানং) বিশ্রাম স্থান (অসিতং) অখণ্ডনীয় (অসিক্লী অসি) তুমি অখণ্ডনীয়। (ইতঃ ) এই পুরুষ হইতে (সৎ) বিকৃত চিহ্নকে (নির্ণাশয়) সর্বদা বিনাশ কর।।
भावार्थ
হে ওষধি! তোমার উপকার অখণ্ডনীয় তোমার বিশ্রামস্থান অখণ্ডনীয়, তুমি নিজে অখণ্ডনীয় এই পুরুষ হইতে বিকৃত চিহ্নকে সর্বদা বিনাশ কর।।
मन्त्र (बांग्ला)
অসিতং তে প্রলয় নমাস্থা নমাস্থা নমসিতং তব। অসিকন্য স্যোষধে নিরিতো নাশয়া পৃষৎ।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। বনষ্পতয়ঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(মহারোগনাশোপদেশঃ) মহারোগ নাশের জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(ওষধে) হে ঔষধি ! (তে) তোমার (প্রলয়নম্) লাভ (অসিতম্) নির্বন্ধ বা অখণ্ড এবং (তব) তোমার (আস্থানম্) বিশ্রামস্থান (অসিতম্) নির্বন্ধ, (অসিক্নী অসি) এবং তুমি নির্বন্ধ [সার সম্পন্ন], (ইতঃ) এই পুরুষ থেকে (পৃষৎ) [বিকৃত] চিহ্নকে (নির্ণাশয়) সর্বথা নাশ করে দাও॥৩॥
भावार्थ
সদ্বৈদ্য বিবেচনা করেন যে, এই ঔষধি পূর্ণ লাভযুক্ত, যথাযোগ্য স্থানে উৎপন্ন এবং সব অংশে সারযুক্ত হয়েছে কিনা। এরূপ বিবেচনার পর ঔষধির প্রয়োগ দ্বারা রোগনিবৃত্তি হয়॥৩॥
भाषार्थ
(তে) তোমার [মূলের] (প্রলয়নম্) লীন/গুপ্ত হওয়ার অর্থাৎ লুকোনোর স্থান (অসিতম্) স্বচ্ছ/উজ্জ্বল নয়, (তব) তোমার (আস্থানম্) স্থিত হওয়ার স্থান (অসিত) স্বচ্ছ/উজ্জ্বল নয়। (ঔষধি) হে ঔষধি ! (অসিক্নী অসি) তুমিও অসিক্নী, অর্থাৎ উজ্জ্বল নয়। (ইতঃ) এই রুগ্ন থেকে (পৃষৎ) সিঞ্চিত করে শ্বেতকুষ্ঠকে (নির্ নাশয়) নির্বিশেষ রূপে তুমি বিনষ্ট করো।
टिप्पणी
[ঔষধির মূল/শেকড় কালো/অন্ধকার স্থান পৃথিবীর স্তরের নীচে থাকে, অন্ধকারস্থান উজ্জ্বল নয়। এবং ঔষধির শাখা প্রশাখার বিস্তারের স্থান ও পৃথিবীর উপরিস্থল, যা স্বচ্ছ নয়। এবং ঔষধি নিজেও উজ্জ্বল নয়। অসিক্নী=অশুক্লা (নিরুক্ত ৬।৮।২)। অশুক্লা=অসিতা, সিতমিতি বর্ণনাম তৎপ্রতিষেধোঽসিতম্ (নিরুক্ত ৯।৩।২৬)। নিরুক্তে অসিক্নী পদ যদ্যপি নদীবাচক, এবং অথর্ববেদে রোগবাচক, তথাপি দুটি স্থানে যৌগিকার্থ সমান।]
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal