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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - शाक्वरगर्भा विराड्जगती सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
    1

    ये दे॑वा दि॒वि ष्ठ ये पृ॑थि॒व्यां ये अ॒न्तरि॑क्ष॒ ओष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्वन्तः। ते कृ॑णुत ज॒रस॒मायु॑र॒स्मै श॒तम॒न्यान्परि॑ वृणक्तु मृ॒त्यून् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । दे॒वा॒: । दि॒वि । स्थ । ये । पृ॒थि॒व्याम् । ये । अ॒न्तरि॑क्षे । ओष॑धीषु । प॒शुषु॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । ते । कृ॒णु॒त॒ । ज॒रस॑म् । आयु॑: । अ॒स्मै । श॒तम् । अ॒न्यान् । परि॑ । वृ॒ण॒क्तु॒ । मृ॒त्यून् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा दिवि ष्ठ ये पृथिव्यां ये अन्तरिक्ष ओषधीषु पशुष्वप्स्वन्तः। ते कृणुत जरसमायुरस्मै शतमन्यान्परि वृणक्तु मृत्यून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । देवा: । दिवि । स्थ । ये । पृथिव्याम् । ये । अन्तरिक्षे । ओषधीषु । पशुषु । अप्ऽसु । अन्त: । ते । कृणुत । जरसम् । आयु: । अस्मै । शतम् । अन्यान् । परि । वृणक्तु । मृत्यून् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलक-यज्ञ के उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विद्वान् महात्माओ ! (ये) जो तुम (दिवि) सूर्यलोक में, (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, (ये) जो (अन्तरिक्षे) आकाश वा मध्यलोक में, (ओषधिषु) ओषधियों में, (पशुषु) सब जीवों में और (अप्सु) व्यापक सूक्ष्म तन्मात्राओं वा जल में (अन्तः) भीतर (स्थ) वर्तमान हो। (ते) वह तुम (अस्मै) इस पुरुष के लिये (जरसम्) कीर्तियुक्त (आयुः) जीवन (कृणुत) करो, [यह पुरुष] (अन्यान्) दूसरे प्रकार के (शतम्) सौ (मृत्यून्) मृत्युओं को (परि वृणक्तु) हटावे ॥३॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् सूर्यविद्या, भूमिविद्या, वायुविद्या, ओषधि अर्थात् अन्न, वृक्ष, जड़ी-बूटी आदि की विद्या, पशु अर्थात् सब जीवों की पालनविद्या और जलविद्या वा सूक्ष्मतन्मात्राओं की विद्या में निपुण हैं, उनके सत्सङ्ग और उनके कर्मों के विचार से शिक्षा ग्रहण करके और पदार्थों के गुण, उपकार और सेवन को यथार्थ समझ कर मनुष्य अपना सब जीवन शुभ कर्मों में व्यतीत करें और दुराचरणों में अपने जन्म को न गमाकर सुफल करें ॥३॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी−(पशु) शब्द जीववाची है, देखो अथर्व० २।३४।१। य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म्। जो पशुपति चौपाये और दोपाये पशुओं [अर्थात् जीवों] का राजा है। (अप्सु) व्यापक सूक्ष्मतन्मात्राओं में। देखो श्रीमद्दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद ३७।२५ और २६ ॥ ३−देवाः। हे दिव्यगुणाः। दिव्यगुणयुक्ता विद्वांसः। दिवि। दिवु क्रीडाविजिगीषाकान्तिगत्यादिषु−क्विप्। प्रकाशे सूर्यसमानलोके। स्थ। अस भुवि लट्। भवथ, वर्तध्वे। पृथिव्याम्। १।२।१। विस्तृतायां प्रख्यातायां वा भूमौ। अन्तरिक्षे। अन्तः सूर्यपृथिव्योर्मध्ये ईक्ष्यते। अन्तर्+ईक्ष दर्शने-कर्मणि घञ्। यद्वा। अन्तर्मध्ये ऋक्षाणि नक्षत्राणि यस्य तत् अन्तरिक्षम्। पृषोदरादित्वाद् ईकारस्य ह्रस्वः, ऋकारस्य इकारः। अन्तरिक्षं कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा−इति भगवान् यास्कः, निरु० २।१०। सर्वमध्ये दृश्यमाने। आकाशे। ओषधीषु। १।२३।१। ओषधि-ङीप् ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। इति मनुः, १।४६ ॥ इति कदलीव्रीहियवफलधान्यादिषु पशुषु। अर्ज्जिदृशिकम्यमिपंसि०। उ० १।२७। इति दृशिर् प्रेक्षणे−कु, पश्यादेशः। पश्यन्ति दृश्यन्ते वा ते पशवः। प्राणिमात्रेषु, सर्वजीवेषु। अप्सु। १।४।३। आप्लृ−क्विप्। व्यापिकासु सूक्ष्मतन्मात्रासु। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये यजुः। ३७।२५, २६। जलेषु वा। अन्तः। मध्ये। ते। सर्वे देवा यूयम्। कृणुत। कुरुत। जरसम्। म० २। जरस् स्तुतिः। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। स्तुतियुक्तम्। प्रशंसनीयम्। आयुः। एतेर्णिच्च। उ० २।११८। इति इण् गतौ−उसि। ईयते प्राप्यते यत्तद् आयुः। जीवनम्, जीवितकालः। अस्मै। आत्मने, मह्यम्। शतम्। अपरिमितान्। अन्यान्। स्तुत्यजीवनाद् भिन्नान् मृत्यून्। परि+वृणक्तु। वृजी वर्जने−लोट्। अयम् उपासकः परिवर्जयतु। मृत्यून्। भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। इति मृङ् प्राणत्यागे−त्युक्। प्राणवियोगान्, मरणानि। अत्र पश्यत अ० २।२८।१। तथा ८।२।२७ ॥

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    विषय

    अन्न, दूध व जल

    पदार्थ

    १. (ये देवा:) = जो देव (दिवि स्थ) = युलोक में हो, (ये प्रथिव्याम्) = जो प्रथिवी पर हो (ये अन्तरिक्षे) = जो अन्तरिक्ष में हो और (ओषधीषु, पशुषु अप्सु अन्त:) = जो ओषधियों में, पशुओं में और जलों में हो (ते) = वे सब देव (अस्मै) = इसके लिए (जरसम् आयु:) = पूर्ण जरावस्था तक प्राप्त होनेवाले जीवन को (कृणुत) = करो। यह (शतम्) = सैकड़ों (अन्यान् मृत्युन्) = अन्य मृत्युओं को, रोगों से, दुर्घटनाओं [accidents] से होनेवाली मृत्युओं को (परिवणक्त) = अपने से दूर ही रक्खे। २. प्राकृतिक शक्तियों तेतीस भागों में बाँटी गई हैं-ग्यारह धुलोक में, ग्यारह अन्तरिक्ष में और ग्यारह पृथिवी पर । इन सबकी अनुकूलता होने पर क्रमश: मस्तिष्क, हृदय व शरीर का स्वास्थ्य निर्भर होता है। इनके अतिरिक्त ओषधियों में भी दिव्य गुण विद्यमान होते हैं। सूर्य-चन्द्र आदि से इनमें प्राणदायी तत्त्वों का स्थापन होता है। 'पयः पशूनाम्' इस अथर्व के संकेत के अनुसार पशुओं के दूध का प्रयोग अभीष्ट है। यह भी ओषधियों के सब दिव्य गुणों को लिये हुए होता है। जलों में तो सर्वरोगनाशक दिव्य तत्त्व प्रभु ने स्थापित किये ही हैं। अन्न, दूध व जल-इन सबका प्रयोग दीर्घ-जीवन का साधन बनता है। इनके ठीक प्रयोग से न रोग आते हैं और न असमय की मृत्यु होती है।

    भावार्थ

    सब प्राकृतिक शक्तियों की अनुकूलता तथा 'अन्न, दूध व जल' का ठीक प्रयोग हमें रोगों से बचाए और पूर्ण जीवन प्राप्त कराए।

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    भाषार्थ

    (देवाः) हे देवो ! (ये) जो (दिवि) द्युलोक में (स्थ ) तुम हो, (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, ( ये ) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में, ( ओषधीषु) ओषधियों में, ( पशुषु ) पशुओं में, (अप्सु ) जलों में (अन्तः) इनके मध्य में हो। (ते) वे (अस्मै) इस ब्रह्मचारी के लिये (जरसम् आयुः) जरावस्था तक की आयु (कृणुत) तुम करो, (शतम् अन्यान्) शतविध अन्य (मुत्यून्) मृत्युओं को (परिवृणक्तु) परिवर्जित करे [परमेश्वर।]

    टिप्पणी

    [ऋषि दयानन्द द्युलोक, अन्तरिक्ष में भी देवों की सत्ता मानते हैं । सत्यार्थप्रकाश समुल्लास आठ के अनुसार यथा “जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं, पश्चात् उनमें उसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा-सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे ? परमेश्वर का कोई काम निष्प्रयोजन नहीं होता। तो क्या इन असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है, इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है। कुछ कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है।" यजुर्वेद के अनुसार भी नाकलोक में मुक्त आत्माओं की विद्यमानता है (३१।१६) । यजुर्वेद के इस मन्त्र में "साध्याः" हैं वे जिन्होंने योग के अष्टाङ्गों को सिद्ध कर लिया है। तथा पूर्व के दो अभिप्राय है- ( १ ) पूर्वसष्टिकाल के अथवा (२) वर्तमान सृष्टि में भी जो अष्टाङ्ग योग में पूर्ण हुए हैं, पुर्व पूरणे (भ्वादिः)। या पूरी आप्यायने, आप्यायनम्, ओप्यायी वृद्धौ (भ्वादिः)]

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    विषय

    प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( देवाः ) प्रकाशमान्, ज्ञानवान् और क्रियावान् दिव्य पदार्थों और पुरुषो ! आप में से (ये) जो ( दिवि ) ज्ञानमय अवस्था, द्युलोक और सात्विक उन्नत दशा में ( ष्ठ ) हो और ( ये ) जो ( पृथिव्यां ) पृथिवी में हो और जो ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में विमान आदि चलाने हारे हो, ( ओषधीषु ) और जो ओषधि वनस्पतियों में उनको उचित रूप से संग्रह और प्रयोग करने में लगे हों और ( पशुषु ) जो वन्य जीवों एवं पशुओं के पालन, वृद्धि और सदुपयोग में लगे हो और ( अप्सु अन्तः ) जो जलों के भीतर समुद्रादिक में मुक्ता आदि संग्रह और व्यापार में या कार्यों में लगे हो, ( ते ) वे सब मिलकर ( अस्मै ) इस राष्ट्रपति के ( जरसं ) वार्धक्य काल तक ( आयुः ) जीवन की रक्षा ( कृणुत ) करें और वे ( अन्यान् ) और भी ( शतं ) सैकड़ों (मृत्यून् ) मृत्युओं को (परि वृणक्तु ) दूर करें । सूर्य चन्द्र आदि द्युलोक में जल नदी आदि पृथिवी पर और वायु, विद्युत् आदि अन्तरिक्ष में दिव्य पदार्थ हैं। ओषधियों में रसायन द्रव्य सोम आदि, पशुओं में गौ आदि, जलों में दिव्य जल आदि, इनसे पुरुष की आयु रक्षा और कष्टों को दूर करने का भी उपदेश है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुष्कामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः देवताः। वस्वादिदेवस्तुतिः । १, २, ४ त्रिष्टुभः। ३ शाकरगर्भा विराड् जगती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Full Age

    Meaning

    All those, divinities which are in heaven, those on earth and those which are in the middle region, in the herbs, in all living beings, in animals and birds and in the waters, may they all bring him a full and healthy life, and may he dispel and destroy a hundred other deadly wants, problems and deprivations of life for you all.

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    Translation

    O dear bounties of Nature, who are in heaven, who are on earth, who are in the midspace, in the herbs and in the cattle, may you extend the life of this man to his full old age. Let him get over the hundreds of other deaths.

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    Translation

    May those Devas, the powerful worldly forces prosent in the heavenly region, those which are Present in atmosphere, those which have their places in herbs, animal kingdom and waters, become the source of long life for this ruler or man to full of his old age.

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    Translation

    May all learned persons, well-versed in astronomy, geology, aerostatics, medicine, veterinary science, and hydropathy, grant this man life to full old age, and let him escape the hundred other ways of dying.

    Footnote

    Him refers to the king, who should enjoy a long life, and avoid hundreds of deadly diseases.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी−(पशु) शब्द जीववाची है, देखो अथर्व० २।३४।१। य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म्। जो पशुपति चौपाये और दोपाये पशुओं [अर्थात् जीवों] का राजा है। (अप्सु) व्यापक सूक्ष्मतन्मात्राओं में। देखो श्रीमद्दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद ३७।२५ और २६ ॥ ३−देवाः। हे दिव्यगुणाः। दिव्यगुणयुक्ता विद्वांसः। दिवि। दिवु क्रीडाविजिगीषाकान्तिगत्यादिषु−क्विप्। प्रकाशे सूर्यसमानलोके। स्थ। अस भुवि लट्। भवथ, वर्तध्वे। पृथिव्याम्। १।२।१। विस्तृतायां प्रख्यातायां वा भूमौ। अन्तरिक्षे। अन्तः सूर्यपृथिव्योर्मध्ये ईक्ष्यते। अन्तर्+ईक्ष दर्शने-कर्मणि घञ्। यद्वा। अन्तर्मध्ये ऋक्षाणि नक्षत्राणि यस्य तत् अन्तरिक्षम्। पृषोदरादित्वाद् ईकारस्य ह्रस्वः, ऋकारस्य इकारः। अन्तरिक्षं कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा−इति भगवान् यास्कः, निरु० २।१०। सर्वमध्ये दृश्यमाने। आकाशे। ओषधीषु। १।२३।१। ओषधि-ङीप् ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। इति मनुः, १।४६ ॥ इति कदलीव्रीहियवफलधान्यादिषु पशुषु। अर्ज्जिदृशिकम्यमिपंसि०। उ० १।२७। इति दृशिर् प्रेक्षणे−कु, पश्यादेशः। पश्यन्ति दृश्यन्ते वा ते पशवः। प्राणिमात्रेषु, सर्वजीवेषु। अप्सु। १।४।३। आप्लृ−क्विप्। व्यापिकासु सूक्ष्मतन्मात्रासु। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये यजुः। ३७।२५, २६। जलेषु वा। अन्तः। मध्ये। ते। सर्वे देवा यूयम्। कृणुत। कुरुत। जरसम्। म० २। जरस् स्तुतिः। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। स्तुतियुक्तम्। प्रशंसनीयम्। आयुः। एतेर्णिच्च। उ० २।११८। इति इण् गतौ−उसि। ईयते प्राप्यते यत्तद् आयुः। जीवनम्, जीवितकालः। अस्मै। आत्मने, मह्यम्। शतम्। अपरिमितान्। अन्यान्। स्तुत्यजीवनाद् भिन्नान् मृत्यून्। परि+वृणक्तु। वृजी वर्जने−लोट्। अयम् उपासकः परिवर्जयतु। मृत्यून्। भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। इति मृङ् प्राणत्यागे−त्युक्। प्राणवियोगान्, मरणानि। अत्र पश्यत अ० २।२८।१। तथा ८।२।२७ ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (দেবাঃ) হে বিদ্বান মনুষ্যগণ! (য়ে) যে তোমরা (দিবি) সূর্য লোকে, (য়ে) যাহারা (অন্তরিক্ষে) আকাশে (ওষধিষু) ওষধিতে (পশুষু) পশুতে (অপ সু) জলে নিপূণ (তে) তাহারা (অল্মৈ) এই ব্যক্তির জন্য (জরসম্) কীর্তিযুক্ত (আয়ু) জীবন (কৃণুত) দান কর। এই পুরুষ অন্য (শতম্) শত (মৃত্যুম্) মৃত্যুকে (পরিবৃণক্ত) দূরীভূত করুক।।

    भावार्थ

    হে বিদ্বান পুরুষগণ ! তোমরা সূর্যলোক, পৃথিবীলো, মধ্য লোক, ওষধি, পশু কীর্তিযুক্ত জীবন দান কর। আমি যেন অন্যান্য শত মৃত্যুকেও দূর করিতে পারি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ে দেবা দিবিষ্ঠ য়ে পৃথিব্যাং য়ে অন্তরিক্ষ ওষধীষু পশুষ্বন্দ্ব১ন্তঃ। তে কৃণুত জরসমায়ুরস্মে শতমন্যান্ পরি বৃণক্তু মত্যূন্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা (আয়ুষ্কামঃ)। বিশ্বে দেবাঃ। শকুরীগর্ভা বিরাড জগতী

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    मन्त्र विषय

    (রাজসূয়যজ্ঞোপদেশঃ) রাজতিলক যজ্ঞের জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (দেবাঃ) হে বিদ্বান মহাত্মাগণ ! (যে) যে তোমরা (দিবি) সূর্যলোকে, (যে) যে (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে, (যে) যে (অন্তরিক্ষে) আকাশ বা মধ্যলোকে, (ওষধিষু) ঔষধিসমূহে, (পশুষু) সকল জীবে এবং (অপ্সু) ব্যাপক সূক্ষ্ম তন্মাত্রাসমূহে বা জলের (অন্তঃ) ভেতর (স্থ) বর্তমান আছো। (তে) সেই তোমরা (অস্মৈ) এই পুরুষের জন্য (জরসম্) কীর্তিযুক্ত (আয়ুঃ) জীবন (কৃণুত) করো, [এই পুরুষ] (অন্যান্) অন্য প্রকারের (শতম্) শত (মৃত্যূন্) মৃত্যুসমূহকে (পরি বৃণক্তু) দূর করুক ॥৩॥

    भावार्थ

    যে বিদ্বান সূর্যবিদ্যা, ভূমিবিদ্যা, বায়ুবিদ্যা, ঔষধি অর্থাৎ অন্ন, বৃক্ষ, ভেষজ আদির বিদ্যা, পশু অর্থাৎ সব জীবের পালনবিদ্যা এবং জলবিদ্যা বা সূক্ষ্মতন্মাত্রাসমূহের বিদ্যায় নিপুণ, তাদের সৎসঙ্গ এবং তাদের কর্মসমূহের বিবেচনা দ্বারা শিক্ষা গ্রহণ করে এবং পদার্থসমূহের গুণ, উপকার এবং সেবনকে যথার্থ বুঝে মনুষ্য নিজের সমগ্র জীবন শুভ কর্মে ব্যতীত করবেন এবং দুরাচরণে নিজের জন্মকে নষ্ট না করে সুফল লাভ করবেন ॥৩॥ টিপ্পণী−(পশু) শব্দ জীববাচী, দেখুন অথর্ব০ ২।৩৪।১। য ঈশে॑ পশু॒পতিঃ॑ পশূ॒নাং চতু॑ষ্পদামু॒ত যো দ্বি॒পদা॑ম্। যে পশুপতি চতুষ্পদ এবং দ্বিপদ পশুদের [অর্থাৎ জীবদের] রাজা। (অপ্সু) ব্যাপক সূক্ষ্মতন্মাত্রাসমূহে। দেখুন শ্রীমদ্দয়ানন্দভাষ্য, যজুর্বেদ ৩৭।২৫ এবং ২৬ ॥

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    भाषार्थ

    (দেবাঃ) হে দেবগণ! (যে) যে (দিবি) দ্যুলোকে (স্থ) তোমরা রয়েছো, (যে) যে (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে, (যে) যে (অন্তরিক্ষে) অন্তরিক্ষে, (ওষধীষু) ঔষধিতে, (পশুষু) পশুদের মধ্যে, (অপ্সু) জলে (অন্তঃ) এগুলোর মধ্যে রয়েছো। (তে) তা (অস্মৈ) এই ব্রহ্মচারীর জন্য (জরসম্ আয়ুঃ) জরাবস্থার আয়ু পর্যন্ত (কৃণুত) তোমরা করো, (শতম্ অন্যান্) শতায়ু ছাড়া অন্য (মৃত্যূন্) মৃত্যুকে (পরিবৃণক্তু) পরিবর্জিত করুক [পরমেশ্বর।]

    टिप्पणी

    [ঋষি দয়ানন্দ দ্যুলোক, অন্তরিক্ষেও দেবতাদের সত্তা মেনেছেন। সত্যার্থপ্রকাশের অষ্টম সমুল্লাস অনুসারে যথা "যখন পৃথিবীর সমান সূর্য, চন্দ্র ও নক্ষত্র বসু রয়েছে, তাহলে সেগুলোতে প্রজাদের অস্তিত্বে কি সন্দেহ? এবং যেভাবে পরমেশ্বরের এই ক্ষুদ্র লোক মনুষ্যাদি সৃষ্টিতে পূর্ণ রয়েছে তাহলে কি এই সব লোক শূন্য হবে? পরমেশ্বরের কোনো কাজ নিষ্প্রয়োজন হয় না। তাহলে কি এই অসংখ্য লোকে মনুষ্য আদি সৃষ্টি না হলে সফল কখনো হতে পারে, এইজন্য সর্বত্র মনুষ্যাদি সৃষ্টি রয়েছে। কিছু কিছু আকৃতিতে পার্থক্য হওয়া সম্ভব। যজুর্বেদ অনুসারেও নাকলোকে মুক্ত আত্মার বিদ্যমানতা রয়েছে (৩১।১৬)। যজুর্বেদের এই মন্ত্রে "সাধ্যাঃ" রয়েছে, সে/তাঁরা যে/যারা যোগের অষ্টাঙ্গকে সিদ্ধ করে নিয়েছে। এবং পূর্বের দুটি অভিপ্রায় রয়েছে-(১) পূর্বসৃষ্টিকালের অথবা (২) বর্তমান সৃষ্টিতেও যে অষ্টাঙ্গ যোগে পূর্ণ হয়েছে, পূর্ব পূরণে (ভ্বাদিঃ)। বা পূরী আপ্যায়নে, আপ্যায়নম্, ওপ্যায়ী বৃদ্ধৌ (ভ্বাদিঃ)। ওষধীষু পশুষু অপ্সু অন্তঃ দেবাঃ= ঔষধি, পশু, জলের মধ্যে কর্মকারী ব্যবহারী অর্থাৎ ব্যবসায়ীরা "দিবু ক্রীডাবিজিগীষাব্যবহার" আদি (দিবাদিঃ)। ঔষধির ব্যবহারকারী হলো বন্য এবং কৃষিজন্য পদার্থের ব্যবসায়ী; পশুদের ব্যবহারকারী হলো পশুপালক এবং এদের ক্রয় বিক্রয়কারী; জলের ব্যবসায়ী হলো নৌকা দ্বারা বাণিজ্যকারী, ব্যবহারী।]

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