अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 19
ऊ॒र्ध्वो बि॒न्दुरुद॑चर॒द्ब्रह्म॑णः॒ ककु॑दा॒दधि॑। तत॒स्त्वं ज॑ज्ञिषे वशे॒ ततो॒ होता॑जायत ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्व: । बि॒न्दु: । उत् । अ॒च॒र॒त् । ब्रह्म॑ण: । ककु॑दात् । अधि॑ । तत॑: । त्वम् । ज॒ज्ञि॒षे॒ । व॒शे॒ । तत॑: । होता॑ । अ॒जा॒य॒त॒ ॥१०.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो बिन्दुरुदचरद्ब्रह्मणः ककुदादधि। ततस्त्वं जज्ञिषे वशे ततो होताजायत ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्व: । बिन्दु: । उत् । अचरत् । ब्रह्मण: । ककुदात् । अधि । तत: । त्वम् । जज्ञिषे । वशे । तत: । होता । अजायत ॥१०.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर शक्ति की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(ऊर्ध्वः) ऊँचा (बिन्दुः) बिन्दु [थोड़ा अंश] (ब्रह्मणः) ब्रह्म [परमेश्वर] की (ककुदात्) प्रधानता से (अधि) अधिकारपूर्वक (उत् अचरत्) ऊँचा गया। (ततः) उससे (वशे) हे वशा ! [कामनायोग्य परमेश्वरशक्ति] (त्वम्) तू (जज्ञिषे) उत्पन्न हुई थी, (ततः) और उसी से (होता) पुकारनेवाला [यह जीवात्मा] (अजायत) उत्पन्न हुआ है ॥१९॥
भावार्थ
परमेश्वर के बिन्दु अर्थात् थोड़े सामर्थ्य से संसार में यह दृश्यमान शक्ति और सब प्राणी प्रकट हैं ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(ऊर्ध्वः) उच्चस्थः (बिन्दुः) बिदि अवयवे-उ। अल्पांशः (उदचरत्) उदगच्छत् (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (ककुदात्) कस्य सुखस्य कुं भूमिं ददातीति, क+कु+दा-क। प्राधान्ये राजलिङ्गे च वृषाङ्गे ककुदोऽस्त्रियाम्। इत्यमरः २३।९२। प्राधान्यात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (ततः) बिन्दुसकाशात् (त्वम्) (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ (वशे) (ततः) तस्माद् बिन्दोः (होता) आह्वाता जीवः (अजायत) ॥
विषय
ऊर्ध्वरेता बनना
पदार्थ
१. (ब्रह्मणः ककुदात् अधि) = [अधिः पञ्चम्यानुवादी] ज्ञान के शिखर के हेतु से (बिन्दुः) = वीर्यकण (ऊर्ध्वः उदचरत्) = शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला हुआ, अर्थात् शरीर में जब शक्ति की ऊर्ध्वगति होती है, तभी यह शरीर में सुरक्षित हुई-हुई ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है और हम ज्ञान के शिखर पर पहुँचने के योग्य बनते हैं। २. हे (वशे) = कमनीये वेदधेनो। (ततः) = तभी-वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर ही (त्वं जज्ञिषे) = तू प्रादुर्भूत होती है-तेरे प्रकाश को यह ऊध्वरेता पुरुष ही प्राप्त करता है। (तत:) = तभी-वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर ही (होता) = वह सब साधनों को देनेवाला प्रभु (अजायत) = प्रादुर्भूत होता है-तभी हम हृदय में प्रभु का प्रकाश पाते हैं।
भावार्थ
ज्ञान के शिखर पर पहुँचने के लिए, वेदवाणी के व प्रभु के प्रकाश को पाने के लिए आवश्यक है कि हम शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाले बनें।
भाषार्थ
(ब्रह्मणः) ब्रह्मरन्ध्र की (ककुदात् अधि) चोटी से (बिन्दुः) वीर्यबिन्दु (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्व हो कर (उदचरत्) ऊपर की ओर गति करता है। (वशे) हे वशा मातः ! (ततः) तत्पश्चात् (त्वम्) तू (जज्ञिषे) प्रकट होती है, (ततः) तत्पश्चात् (होता) उपासक भक्तिरस का दाता (अजायत) बनता है।
टिप्पणी
[ब्रह्मरन्ध्र = यह भ्रूमध्यस्थित आज्ञाचक्र से ऊर्ध्व की ओर, और सहस्रार चक्र से नीचे की ओर मस्तिष्क में स्थित है। इस स्थान पर मन के स्थिर हो जाने पर असम्प्रज्ञात समाधि अर्थात् सर्ववृत्तिनिरोध होता है। बिन्दुः उद् अचरत् =वीर्य बिन्दु यद्यपि ब्रह्मरन्ध्र की चोटी से ऊर्ध्व की और गति नहीं कर सकता, तथापि इस का अभिप्राय है "ऊर्ध्व रेतस्" होना, वीर्य का रक्त में ही विलीन रहना, उस का अधःपतन न होने देना। वीर्यशक्ति योगाभ्यास में एक विशिष्ट शक्ति है। यथा "श्रद्धावीर्यस्मृति समाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्" (योग १/२०) में, वीर्य को असंप्रज्ञात समाधि का हेतु कहा है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha Gau
Meaning
From that communion between the human and divine, with human potential and awareness concentrated to a point, the yogi rises, through the Brahma-randhra, highest gateway of the ascent of humanity and the descent of Divinity, he rises above the Mahat abstraction of Prakrti in the existential samadhi state, reborn as a participant in cosmic yajna. And there, O Mother Divine, he calls on you, and there you emerge, and you bless.
Translation
One drop rose high upwards from the summit of the Lord supreme. From that, O Vasa, you were born. Thērefrom was born the hotr priest.
Translation
From the summit of the material cause there went forth the infinitesimal part and it mounted up on high in the space and from this was produced this earth and thence came out the cognitive object with body which enjoy this world.
Translation
From God's eminence there went forth a drop that mounted up on high: from that wast thou produced, O beautiful power of God, from that the soul Sprang to life.
Footnote
Sprang to life: Assumed bodily form.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(ऊर्ध्वः) उच्चस्थः (बिन्दुः) बिदि अवयवे-उ। अल्पांशः (उदचरत्) उदगच्छत् (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (ककुदात्) कस्य सुखस्य कुं भूमिं ददातीति, क+कु+दा-क। प्राधान्ये राजलिङ्गे च वृषाङ्गे ककुदोऽस्त्रियाम्। इत्यमरः २३।९२। प्राधान्यात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (ततः) बिन्दुसकाशात् (त्वम्) (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ (वशे) (ततः) तस्माद् बिन्दोः (होता) आह्वाता जीवः (अजायत) ॥
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