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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 75
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    2

    प्र बु॑ध्यस्वसु॒बुधा॒ बुध्य॑माना दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय। गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒यथासो॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । बु॒ध्य॒स्व॒ । सु॒ऽबुधा॑ । बुध्य॑माना । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय । गृ॒हान् । ग॒च्छ॒ । गृ॒हऽप॑त्नी । यथा॑ । अस॑: । दी॒र्घम् । ते॒ । आयु॑: । स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ ॥२.७५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र बुध्यस्वसुबुधा बुध्यमाना दीर्घायुत्वाय शतशारदाय। गृहान्गच्छ गृहपत्नीयथासो दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । बुध्यस्व । सुऽबुधा । बुध्यमाना । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय । गृहान् । गच्छ । गृहऽपत्नी । यथा । अस: । दीर्घम् । ते । आयु: । सविता । कृणोतु ॥२.७५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 75
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे पत्नी !] तू (शतशारदाय) सौ वर्ष तक (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन पाने के लिये (सुबुधा) उत्तमबुद्धिवाली और (बुध्यमाना) सावधान रहकर (प्र बुध्यस्व) जागती रहे। (गृहान्) घरों [घर के पदार्थों] को (गच्छ) प्राप्त हो, (यथा) जिस से तू, (गृहपत्नी) गृहपत्नी (असः) होवे, (सविता) सब ऐश्वर्यवाला परमात्मा (ते) तेरे (आयुः) जीवन को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे ॥७५॥

    भावार्थ

    पत्नी को योग्य है किपरमात्मा का सदा ध्यान करके गृहकार्यों में सावधान रहकर और चिरंजीविनी होकर कुलकी वृद्धि करे ॥७५॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण मेंव्याख्यात है ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥इत्येकोनत्रिंशः प्रपाठकः ॥इति चतुर्दशं काण्डम् ॥ इतिश्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासपरीयाक्षाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये चतुर्दशं काण्डं समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    ७५−(प्रबुध्यस्व) प्रकर्षेण जागृता वर्तस्व (सुबुधा) उत्तमबुद्धिमती (बुध्यमाना)सावधाना (दीर्घायुत्वाय) दीर्घजीवनप्राप्तये (शतशारदाय) शतवर्षयुक्ताय (गृहान्)गृहपदार्थान् (गच्छ) प्राप्नुहि (गृहपत्नी) गृहस्वामिनं (यथा) येन प्रकारेण (असः) त्वं भवेः (दीर्घम्) (ते) तव (आयुः) जीवनम् (सविता) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (कृणोतु) करोतु ॥

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    विषय

    सुबुधा-बुध्यमाना

    पदार्थ

    १. पत्नी को अन्तिम आशीर्वाद व शिक्षा इस रूप में दी जाती है कि (प्रबुध्यस्व) = तू प्रकृष्ट बोधवाली हो। (सुबुधा) = उत्तम बुद्धिवाली तू (बुध्यमाना) = समझदार बन। इसप्रकार तू शतशारदाय (दीर्घायुत्वाय) = शत वर्षों के दीर्घजीवन के लिए हो। २. (गृहान् गच्छ) = पति के गृह को तू प्राप्त हो (यथा) = जिससे तू (गृहपत्नी असः) = गृहपत्नी बने। तु वस्तुत: घर का उत्तमता से रक्षण करनेवाली हो। (सविता) = वह सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक प्रभु (ते आयु:) = तेरे आयुष्य को (दीर्घकृणोतु) = दीर्घ करे ।

    भावार्थ

    पत्नी उत्तम बोधवाली होती हुई सब कार्यों को समझदारी से करे। पतिगृह को प्राप्त होकर वस्तुतः गृहपत्नी बने। प्रभु-स्मरणपूर्वक कार्यों को करती हुई दीर्घजीवन प्राप्त करे ।

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    भाषार्थ

    हे वधू ! (सुबुधा) सुबोध तू (प्रबुध्यस्व) प्रबोध को प्राप्त हो। (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ आयुवाली होने के लिये, (शतशारदाय) और १०० वर्षों तक जीने के लिये तू (बुध्यमाना) बोध-प्रबोध को प्राप्त करती रह। (गृहान्) नाना कमरोंवाले पतिगृह को, या पति के गृहवासियों को (गच्छ) प्राप्त हो, (यथा) जिससे कि तू (गृहपत्नी) घर की स्वामिनी (असः) हो सके। (सविता) जगत् का उत्पादक पिता (ते) तेरी (आयुः) आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे।

    टिप्पणी

    [सुबुधा=सु+बुध्+कः (इगुपधत्वात्; अष्टा० ३।१।३५)+टाप्] [व्याख्या–इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को बोध कहते हैं, और योगसाक्षात्कार को प्रबोध कहते हैं। उपनिषदों में परमात्मसाक्षात्कार को प्रबोध का विषय माना है। यथा “प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते” (प्रश्नोपनिषद्) अर्थात् परमात्मा प्रतिबोध द्वारा जाना या प्राप्त किया जाता है। वेद में बोध और प्रतिबोध को दो ऋषि कहा है। यथा “ऋषी बोधप्रतीबोधौ” (अथर्व० ५।३०।१०)। क्योंकि बोध और प्रतिबोध द्वारा आर्षदृष्टि का विकास होता है। व्याख्येय मन्त्र में प्रतिबोध को प्रबोध कहा है (प्रबुध्यस्व)। वधू के दर्शनार्थ आएं हुए पितृलोग वधू को उपदेश या आशीर्वाद देते है कि, हे वधु! तू सुबुधा है, अच्छी पढ़ी-लिखी है। ब्रह्मचर्याश्रम में सूर्याब्रह्मचारिणी बन कर तूने बोध का उपार्जन किया है, तू ने प्रबोध की प्राप्ति के लिये भी यत्न करते रहना। गृहस्थाश्रम में प्रबोध के मार्ग पर भी पग बढ़ाना। परन्तु प्रबोध की प्राप्ति में कहीं बोध की प्राप्ति को शिथिल न कर देना। आयु को दीर्घ करने के लिये नए-नए बोध की प्राप्ति के लिये भी यत्न करते रहना। इस प्रकार बोध के साथ प्रबोध का, और प्रबोध के साथ बोध का समन्वय सदा करते रहना। अब हे वधु! तू रथ से उतर और अपने पतिगृह में प्रवेश कर। यह पतिगृह अब से तेरा है। तू इस की स्वामिनी बन। अन्त में पितृलोग वधू की दीर्घायु चाहते हुए कहते हैं कि परमेश्वर तेरी आयु को दीर्घ करे।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे वधु ! तू (सुबुधा) उत्तम ज्ञान युक्त, एवं सुख से शीघ्र जागने वाली होकर (बुध्यमाना) प्रातः सचेत जागृत रहकर (शतशारदाय) सौ बरस के (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन के लिये (प्र बुध्यस्व) खूब अच्छी प्रकार जागृत रह, सचेत रह। (गृहान् गच्छ) तू घर में ऐसे जा, प्रवेश कर (यथा) जिस प्रकार (गृहपत्नी असः) तू गृह स्वामिनी हो। (सविता) सर्वोत्पादक परमात्मा (ते आयुः दीर्घम् कृणोतु) तेरी आयु को लम्बा करे। (तृ०) ‘गृहान् प्रेहि सुमनस्यमाना’ (च०) ‘तायुः सवि’ इति पैप्प० सं०।

    टिप्पणी

    ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥ [ तत्रैकं सूक्तम्, ऋचश्च पञ्चसप्ततिः। ] इति चतुर्दशं काण्डं समाप्तम्। अनुवाकयुगं सूक्तयुगं चैव सूक्तयुगं चैव चतुर्दशे। एकोनचत्वारिंशत्स्याच्छतं तत्र ऋचां गणः॥ वाणवस्वंङ्कचन्द्राब्दाषाढ़ शुक्लस्य पञ्चमी। भृगौ चतुर्दशं काण्डमाथर्वणमुपारमत्॥ इति प्रतिष्ठित विद्यालंकार-मीमांसातीर्थविरुदोपशोभित-श्रीमज्जयदेवशर्मणा विरचितेऽथर्वणो ब्रह्मवेदस्यालोकभाष्ये चतुर्दशं काण्डं समाप्तम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O bride, be wide awake anew, all aware and highly awakening yourself and others for a long married life of a hundred years. Enter the home and meet and know the inmates of the home so that you may be the maker and mistress of the home. And may Savita, lord inspirer of light and life, grant you a long, healthy and happy life.

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    Translation

    Alert and easy to awake, may you go on waking up for a long life of a hundred autumns. Go to the house, so that, you may become the mistress of the household. May the creator Lord grant you a long life.

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    Translation

    O wife, you having the knowledge of domestic affairs brilliant in intelligence come to my houses for living till hundred autumns. As my wife, the mistress of the house you attain long life and know properly the method of it. May God, the creator of all and the giver of all fortunes fulfill your desires to enable you and me to live in advancement and happiness.

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    Translation

    Equipped with fine intellect and understanding, remain watchful throughout your long life of a hundred autumns. Acquire control over all articles of the house, and thereby become the household’s mistress. May God vouchsafe thee a long life.

    Footnote

    This verse has been explained by Maharshi Dayananda in the Sanskar Vidhi in the chapter on domestic Iife.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७५−(प्रबुध्यस्व) प्रकर्षेण जागृता वर्तस्व (सुबुधा) उत्तमबुद्धिमती (बुध्यमाना)सावधाना (दीर्घायुत्वाय) दीर्घजीवनप्राप्तये (शतशारदाय) शतवर्षयुक्ताय (गृहान्)गृहपदार्थान् (गच्छ) प्राप्नुहि (गृहपत्नी) गृहस्वामिनं (यथा) येन प्रकारेण (असः) त्वं भवेः (दीर्घम्) (ते) तव (आयुः) जीवनम् (सविता) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (कृणोतु) करोतु ॥

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