अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
स प्र॒जाप॑तिःसु॒वर्ण॑मा॒त्मन्न॑पश्य॒त्तत्प्राज॑नयत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । प्र॒जाऽप॑ति: । सु॒ऽवर्ण॑म् । आ॒त्मन् । अ॒प॒श्य॒त् । तत् । प्र । अ॒ज॒न॒य॒त् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स प्रजापतिःसुवर्णमात्मन्नपश्यत्तत्प्राजनयत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । प्रजाऽपति: । सुऽवर्णम् । आत्मन् । अपश्यत् । तत् । प्र । अजनयत् ॥१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्माऔर जीवात्मा का उपदेश अथवा सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(सः) उस (प्रजापतिः)प्रजापालक [परमात्मा] ने (सुवर्णम्) सुन्दर वरणीय [स्वीकरणीय] सामर्थ्य [वासुवर्णसमान प्रकाशस्वरूप] को (आत्मन्) अपने में (अपश्यत्) देखा और (तत्) उसको (प्र अजनयत्) प्रकट किया ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा ने अपनेसृष्टिसाधक सामर्थ्य को वा अपने प्रकाशस्वरूप को विचार कर प्रकट किया ॥२॥
टिप्पणी
२−(सः) (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमात्मा (सुवर्णम्) कॄवृजॄसिद्रु०। उ० ३।१०। वृञ्वरणे-न प्रत्ययो नित्। सुष्ठु वरणीयं स्वीकरणीयं सामर्थ्यम्।सुवर्णवत्प्रकाशस्वरूपम् (आत्मन्) आत्मनि (अपश्यत्) (तत्) सामर्थ्यं स्वरूपं वा (प्र अजनयत्) प्रकटीकृतवान् ॥
विषय
इयमान व्रात्य
पदार्थ
१. (व्रात्यः) = व्रतसमूह का पालन करनेवाला यह व्रतीपुरुष (इयमानः एव आसीत्) = गतिशील ही था, यह कभी अकर्मण्य नहीं हुआ। (स:) = वह व्रात्य (प्रजापतिं समैरयत्) = अपने हृदयदेश में प्रजापति प्रभु की भावना को प्रेरित करता था। इसने हदय में प्रभु का चिन्तन किया। वस्तुतः प्रभु-स्मरणपूर्वक क्रिया होने पर क्रिया में अपवित्रता नहीं आती। २. (सः प्रजापतिः) = उस प्रजापति प्रभु ने सुवर्णम्-प्रभु गुणों का सम्यक् वर्णन करनेवाले इस ज्ञानी को (आत्मन् अपश्यत्) = अपनी गोद में बैठा देखा। ब्रह्मनिष्ठ होकर ही तो यह व्रात्य सब कर्मों को कर रहा था, (तत्) = अत: (प्राजनयत्) = प्रभु ने इस व्रात्य के जीवन का विकास किया। इसे उत्तम गुणों से युक्त जीवनवाला मनाया।
भावार्थ
व्रतमय जीवनवाला यह साधक क्रियाशील हुआ। इसने हृदय में प्रभु की भावना को प्रेरित किया। प्रभु ने इस आत्मनिष्ठ व्रात्य के गुणों का विकास किया।
भाषार्थ
(सः) उस (प्रजापतिः) प्रजारक्षक ने (आत्मन्) अपने आश्रय में (सुवर्णम्) उत्तमवर्णों वाले प्रकृति-तत्त्व को (अपश्यत्) देखा, (तत्) उस प्रकृति-तत्व को (प्राजनयत्) उस ने सृष्टि पैदा करने में उन्मुख१ किया ।
टिप्पणी
[सुवर्णम् = प्रकृति-तत्त्व उत्तम-वर्णों वाला है। श्वेता० उपनिषद् में प्रकृति को "अजा" अर्थात् अजन्मा कहा है, और इस के ३ घटकों अर्थात् सत्त्व, रजस्, तमस् को" शुक्ल, लोहित, और कृष्ण" कहा है। इस प्रकार इन तीन वर्णों का परस्पर मेल सुवर्ण रूप है, उत्तमवर्णों वाला है। "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्" (अ० ४, खं० ५)। आत्मन्ः= अपने में, अर्थात् अपने आश्रय में। इसी भावना से प्रकृति को "स्वधा" भी वेदों में कहा है। स्वधा = स्व (परमेश्वर ने जिसे अपने आश्रय में) + धा (धारित किया हुआ है)। यथा "आनीदवातं स्वधया तदेकम्२" तथा "स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्" (ऋग्वेद १०।१२९।२,५)। स्वधा अर्थात् स्वाश्रित-प्रकृति, निचली शक्ति हैं, और प्रयति अर्थात् परमेश्वर का प्रयत्न, ऊंची शक्ति, श्रेष्ठ शक्ति है। अपश्यत्ः- कारीगर किसी वस्तु का निर्माण करने से पूर्व उस वस्तु के कारणों को दृष्टिगत करता है। तदनन्तर वस्तु के निर्माण में प्रयत्नशील होता है। परमेश्वर ने भी जगत् के कारण प्रकृति तत्त्व को प्रथम दृष्टिगत किया, इस का ईक्षण या निरीक्षण किया। तदनन्तर उस प्रकृति तत्त्व को जगत् के निर्माणोन्मुख किया, "प्राजनयत्"। इसे ही वेदान्त दर्शन में "ईक्षतेनशिब्दम्"- द्वारा प्रकट किया है। तथा "तदैक्षत बहूस्यां प्रजायेय" (छान्दो० अ० ६, खं० २) में भी इसी तथ्य का कथन किया है।] [१. प्रलय में प्रकृति साम्यावस्था अर्थात् अनुत्पादनवस्था में होती है, परमेश्वर ने सृष्ट्युत्पादनार्थ प्रकृति को साम्यावस्था से वैषम्यावस्थोन्मुख किया। २. प्रलयकाल में, स्वाश्रय में निहित प्रकृति के साथ वह एक ब्रह्मतत्त्व प्राणवान् था, उस काल में वायु आदि की सत्ता न थी।]
विषय
व्रात्य प्रजापति का वर्णन।
भावार्थ
(सः प्रजापतिः) वह प्रजापति (आत्मन्) अपने आत्मा में ही (सुवर्णम्) सुवर्ण = तेजोमयरूप को स्वयं (अपश्यत्) देखता है। (तत्) वह ही (प्र अजनयत्) पुनः संसार को उत्पन्न करता है।
टिप्पणी
‘आत्मनः सुपर्णमपश्यत’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अध्यात्मकम्। मन्त्रोक्ताः उत व्रात्यो देवता। तत्र अष्टादश पर्यायाः। १ साम्नीपंक्तिः, २ द्विपदा साम्नी बृहती, ३ एकपदा यजुर्ब्राह्मी अनुष्टुप, ४ एकपदा विराड् गायत्री, ५ साम्नी अनुष्टुप्, ६ प्राजापत्या बृहती, ७ आसुरीपंक्तिः, ८ त्रिपदा अनुष्टुप्। अष्टच प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Having stirred himself into the creative state as Prajapati, he manifested his golden consort, his own self inspired Shakti, Prakrti. Thus started the evolution of existence.
Translation
He, the Lord of creatures, beheld the beauteous one within him. He begot that.
Translation
He, the Lord of universe saw into His pervasiveness Suvarna, the resplendent material cause of three substances (sat, Rajas and tamas) and employed it to produce objects of the universd.
Translation
God perceives His refulgent nature. He creates the universe again and again.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सः) (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमात्मा (सुवर्णम्) कॄवृजॄसिद्रु०। उ० ३।१०। वृञ्वरणे-न प्रत्ययो नित्। सुष्ठु वरणीयं स्वीकरणीयं सामर्थ्यम्।सुवर्णवत्प्रकाशस्वरूपम् (आत्मन्) आत्मनि (अपश्यत्) (तत्) सामर्थ्यं स्वरूपं वा (प्र अजनयत्) प्रकटीकृतवान् ॥
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