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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - चातनः देवता - शालाग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त
    1

    अ॒सौ यो अ॑ध॒राद्गृ॒हस्तत्र॑ सन्त्वरा॒य्यः॑। तत्र॒ सेदि॒र्न्यु॑च्यतु॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ । य: । अ॒ध॒रात् । गृ॒ह: । तत्र॑ । स॒न्तु॒ । अ॒रा॒य्य᳡: । तत्र॑ । से॒दि: । नि । उ॒च्य॒तु॒ । सर्वा॑: । च॒ । या॒तु॒ऽधा॒न्य᳡: ॥१४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ यो अधराद्गृहस्तत्र सन्त्वराय्यः। तत्र सेदिर्न्युच्यतु सर्वाश्च यातुधान्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असौ । य: । अधरात् । गृह: । तत्र । सन्तु । अराय्य: । तत्र । सेदि: । नि । उच्यतु । सर्वा: । च । यातुऽधान्य: ॥१४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    निर्धनता मनुष्यों को प्रयत्न से नष्ट करनी चाहिये।

    पदार्थ

    (असौ) वह (यः) जो (गृहः) घर (अधरात्) नीचे की ओर है, (तत्र) वहाँ पर (अराय्यः) निर्धनतावाली [विपत्तियाँ] (सन्तु) रहें। (तत्र) वहाँ ही (सेदिः) महामारी आदि क्लेश (नि+उच्यतु) नित्य निवास करे, (च) और (सर्वाः) सब (यातुधान्यः) पीड़ा देनेवाली क्रियाएँ भी ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे राजा चौर आदि दुष्टों को पकड़कर कारागार में रखता है, ऐसे ही मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक निर्धनता, दुर्भिक्षता और दुःखदायी रोगों को हटाकर आनन्दित रहना चाहिये ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–अधरात्। अधस्–आति। अधोभागे। नीचस्थाने। गृहः। म० २। गेहम्। अराय्याः। रा दानग्रहणयोः–घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युग् आगमः। राति ददातीति रायो धनम्। न रायः, अरायः, अधनम्। केशाद्वोऽन्यतरस्याम्। पा० ५।२।१०९। इत्यत्र वार्त्तिकम्। छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। इति मत्वर्थीय ईकारः। अरायः, अधनं यस्याः सा अरायी। अलक्ष्म्यः। विपत्तयः। तत्र। अधोदेशे। सेदिः। आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। इत्यत्र वार्त्तिकम्। किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु–कि प्रत्ययः। तस्य लिड्वद्भावाद् द्विर्वचने एत्वाभ्यासलोपौ। निर्ऋतिः। विषादः। न्युच्यतु। उच समवाये दिवादिः। नित्यं समवैतु। सर्वाः। निखिलाः। यातुधान्यः। अ० १।७।१। यत ताडने–उण्+धाञ्–युच्, ङीप्। यातनाप्रदाः पीडादात्र्यः क्रियाः। (न्युच्यन्तु) इति शेषः ॥

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    विषय

    अरायी, सेदि, यातुधानी

    पदार्थ

    १. (असौ) = वह (यः) = जो (अधरात् गृहः) = नीचे पाताल में घर है (तत्र) = वहाँ (अराय्यः) = न देने की वृत्तिवाली गृहिणियाँ (सन्तु) = हों। 'न देना' यह यज्ञ न करने का उपलक्षण है। यज्ञ में 'दान' है। 'न देना' यज्ञ से दूर होना है। यज्ञ से स्वर्गलोक मिलता है तो अयज्ञ से पाताललोक [असुर्य लोक]। २. (तत्र) = वहाँ असुर्यलोक में ही (सेदिः) = [सादयति नाशयति इति सेदिः] नाश की वृत्तिवाली, औरों के कार्यों को ध्वस्त करनेवाली स्त्री का (न्युच्यतु) = निश्चय से समवाय हो सम्बन्ध हो। यह सेदि भी उसी असुर्यलोक में निवास करे। ३. (च) = और (सर्वा:) = सब (यातुधान्य:) = पीड़ा का आधान करनेवाली स्त्रियाँ भी वहीं असुर्यलोक में निवास करें।

    भावार्थ

    अदान की वृत्ति, ध्वंस व नाश की वृत्ति तथा पीड़ा देने की वृत्ति-ये सब हमें असुर्यलोक में ले-जानेवाली होती हैं।

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    भाषार्थ

    (असौ यः) वह जो (अधरात्) नीचे अर्थात् भूतल पर (गृहः) घर है, (तत्र) वहाँ पर (अराय्यः) अराति अर्थात् शत्रुरूप, स्त्रीजाति के रोग-कीटाणु (सन्तु) हों। (तत्र) वहाँ (सेदिः) विनाशिका निर्ऋति (न्युच्यतु) नितरां समवेत अर्थात् सम्बद्ध रहे, (च) तथा (सर्वाः यातुधान्यः) सब यातनाएँ धारण करनेवाले स्त्रीजाति के रोगकीटाणु रहें ।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि रोगकीटाणु शाला के भूतल पर होते हैं, शाला के उपरिभाग में नहीं। अतः यज्ञादि द्वारा वहाँ उनका विनाश करते रहना चाहिए। उच्यतु= उच समवाये (दिवादिः)।]

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    विषय

    बुरी आदतों और कुस्वभाव के पुरुषों का त्याग ।

    भावार्थ

    (यः) जो (गृहः) घर, निवासस्थान (अधराद्) नीचे अन्धकारमय है (तत्र) वहां (सर्वाः) सब (यातुधान्यः) प्रजा को पीड़ा देने वाली विपत्तियां अर्थात् रोग आदि (अराय्यः) जो कि मनुष्य को लक्ष्मी या शोभा से रहित करती हुई (सन्तु) रहा करती है। (तत्र) वहां ही (सेदिः) दुःख और विनाश (नि उच्यतु) सदा रहा करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘प्र० द्वि० तृ०’ ‘अमुष्मिन्नधरे गृहे सर्वास्वन्तारायः। तत्र पाप्मा नियच्छतु’ इति पेप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः । शालाग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः । अग्निभूतपनीन्द्रादिस्तुतिः । १, ३, ५, ६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ४ उपरिष्टाद बृहती। षडृर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    We Counter Negativities

    Meaning

    That slough of mean existence far below the normal minimum standard of human life, culture and behaviour according to Dharma, there let all evil and enmity, all despondency, negativity and spirits of destruction sink and stay.

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    Translation

    In the house, that is there down below, let these harbingers of poverty take shelter. Let the distress settle there as well as all the inflicters of pain.

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    Translation

    Let all these calamities of indigence which are harmful to people go the abode of darkness which is down bellow and where the trouble and destruction are doomed to go.

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    Translation

    There, in a house situated in a low, dark place, reside calamities, dejection, despair and all sorts of diseases. [1]

    Footnote

    [1] Griffith translates Aray as female fiends and night hags. The word means calamities, mishaps.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–अधरात्। अधस्–आति। अधोभागे। नीचस्थाने। गृहः। म० २। गेहम्। अराय्याः। रा दानग्रहणयोः–घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युग् आगमः। राति ददातीति रायो धनम्। न रायः, अरायः, अधनम्। केशाद्वोऽन्यतरस्याम्। पा० ५।२।१०९। इत्यत्र वार्त्तिकम्। छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। इति मत्वर्थीय ईकारः। अरायः, अधनं यस्याः सा अरायी। अलक्ष्म्यः। विपत्तयः। तत्र। अधोदेशे। सेदिः। आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। इत्यत्र वार्त्तिकम्। किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु–कि प्रत्ययः। तस्य लिड्वद्भावाद् द्विर्वचने एत्वाभ्यासलोपौ। निर्ऋतिः। विषादः। न्युच्यतु। उच समवाये दिवादिः। नित्यं समवैतु। सर्वाः। निखिलाः। यातुधान्यः। अ० १।७।१। यत ताडने–उण्+धाञ्–युच्, ङीप्। यातनाप्रदाः पीडादात्र्यः क्रियाः। (न्युच्यन्तु) इति शेषः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অসৌ যঃ) সেই যে (অধরাত) নীচে অর্থাৎ ভূতলে (গহঃ) ঘর রয়েছে, (তত্র) সেখানে (অরায্যঃ) অরাতি অর্থাৎ শত্রুরূপ, স্ত্রীজাতির রোগ-জীবাণু (সন্তু) হোক। (তত্র) সেখানে (সেদিঃ) বিনাশিকা নির্ঋতি (ন্যুচ্যতু) নিরন্তর সমবেত অর্থাৎ সম্বদ্ধ থাকুক, (চ) এবং (সর্বাঃ যাতুধান্যঃ) সব যাতনা ধারণকারী স্ত্রীজাতির রোগ জীবাণু থাকুক।

    टिप्पणी

    [অভিপ্রায় হল, রোগ জীবাণু গৃহের ভূতলে থাকে, গৃহের উপরিভাগে নয়। অতঃ যজ্ঞাদি দ্বারা সেখানে তাদের বিনাশ করতে থাকা উচিত। উচ্যতু= উচ সমবায়ে (দিবাদিঃ)।]

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    मन्त्र विषय

    অলক্ষ্মীর্মনুষ্যৈঃ প্রয়ত্নেন নাশনীয়া

    भाषार्थ

    (অসৌ) সেই (যঃ) যে (গৃহঃ) ঘর (অধরাৎ) নীচের দিকে আছে, (তত্র) সেখানে (অরায্যঃ) নির্ধনতাযুক্ত [বিপত্তি] (সন্তু) থাকুক/হোক। (তত্র) সেখানেই (সেদিঃ) মহামারী আদি ক্লেশ (নি+উচ্যতু) নিত্য নিবাস করুক, (চ) এবং (সর্বাঃ) সব (যাতুধান্যঃ) পীড়াদায়ক ক্রিয়াও ॥৩॥

    भावार्थ

    যেমন রাজা, চোর আদি দুষ্টদের বন্দী করে কারাগারে রাখে, এভাবেই মনুষ্যদের চেষ্টাপূর্বক নির্ধনতা, দুর্ভিক্ষতা ও দুঃখদায়ী রোগ দূর করে আনন্দিত থাকা উচিৎ ॥৩॥

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