अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 105/ मन्त्र 3
इ॒त ऊ॒ती वो॑ अ॒जरं॑ प्रहे॒तार॒मप्र॑हितम्। आ॒शुं जेता॑रं॒ हेता॑रं र॒थीत॑म॒मतू॑र्तं तुग्र्या॒वृध॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒त: । ऊ॒ती । व॒: । अ॒जर॑म् । प्र॒ऽहे॒तार॑म् । अप्र॑ऽहितम् ॥ आ॒शुम् । जेता॑रम् । हेता॑रम् । र॒थिऽत॑मम् । अतू॑र्तम् । तु॒ग्र्य॒ऽवृध॑म् ॥१०५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इत ऊती वो अजरं प्रहेतारमप्रहितम्। आशुं जेतारं हेतारं रथीतममतूर्तं तुग्र्यावृधम् ॥
स्वर रहित पद पाठइत: । ऊती । व: । अजरम् । प्रऽहेतारम् । अप्रऽहितम् ॥ आशुम् । जेतारम् । हेतारम् । रथिऽतमम् । अतूर्तम् । तुग्र्यऽवृधम् ॥१०५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] (वः) तुम्हारी (ऊती) रक्षा के लिये (अजरम्) जरारहित [सदा बलवान्] (प्रहेतारम्) सबके चलानेवाले, (अप्रहितम्) किसी से न चलाये गये, (आशुम्) फुरतीले, (जेतारम्) जय करनेवाले, (हेतारम्) बढ़ानेवाले, (रथीतमम्) रमणीय पदार्थों के सबसे बड़े स्वामी, (अतूर्तम्) न सताये गये, (तुग्र्यावृधम्) बस्ती के हितकारी के बढ़ानेवाले [परमेश्वर] को (इतः) वे दोनों [आकाश और भूमि-म० २] प्राप्त होते हैं ॥३॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने पृथिवी और आकाश के पदार्थ मनुष्य के हित के लिये रचे हैं, उस जगदीश्वर की सदा भक्ति करके बलवान् होकर वृद्धि करें ॥३॥
टिप्पणी
मन्त्र ३ सामवेद में भी है-पू० ३।१०।१ ॥ ३−(इतः) गच्छतः प्राप्नुतः। ते क्षोणी-म० २ (ऊती) ऊत्यै रक्षायै (वः) युष्माकम् (अजरम्) जरारहितम् (प्रहेतारम्) हि गतौ-तृन्। प्रकर्षेण गमयितारम् (अप्रहितम्) केनाप्यचालितम् (आशुम्) वेगवन्तम् (जेतारम्) जयकर्तारम् (हेतारम्) हि वृद्धौ-तृन्। वर्धयितारम् (रथीतमम्) रमणीयपदार्थानां स्वामितमम् (अतूर्तम्) तुरी हिंसने-क्त। अहिंसितम् (तुग्र्यावृधम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। तुज तुजि हिंसाबलाधाननिकेतनेषु रक्, तुग्र-यत्। निवासाय हितस्य वर्धकम् ॥
विषय
'तुग्य्रावृधम्' प्रभु
पदार्थ
१. (च:) = तुम्हारे (अजरम्) = जरा को दूर करनेवाले [न जरा यस्मात्] (प्रहेतारम्) = शत्रुओं को दूर प्रेरित करनेवाले, (अनहितम्) = किसी भी दूसरे से प्रेरित न किये जानेवाले, (आशुम्) = वेगवान्, -(जेतारम्) = शत्रुओं को पराजित करनेवाले, (हेतारम्) = शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाले प्रभु को (ऊती) = रक्षण के लिए (इतः) = ये द्यावापृथिवी प्राप्त होते हैं, अर्थात् प्रभु ही सबका रक्षण करते हैं। २. उस प्रभु को रक्षा के लिए सब प्राप्त होते हैं, जो (रथीतमम्) = हमारे शरीर-रथों के सर्वोत्तम संचालक हैं। (अतूर्तम्) = किसी से हिंसित होनेवाले नहीं तथा (तुग्य्रावृधम्) = शरीरस्थ रेत:कणरूप जलों का वर्धन करनेवाले हैं। वस्तुत: शत्रुओं का हिंसन करके शरीर में शक्तियों के वर्धन के द्वारा ही प्रभु हमारा रक्षण करते हैं।
भावार्थ
सम्पूर्ण द्यावापृथिवी रक्षण के लिए प्रभु को ही प्राप्त होते हैं। प्रभु शत्रुओं का हिंसन करके हमारा रक्षण करते हैं। वे रेत:कणरूप जलों का हममें वर्धन करते हैं।
भाषार्थ
हे उपासको! (इतः) इन क्लेशों से (वः) तुम्हारी रक्षा के लिए मैं—(अजरम्) जीर्ण न होनेवाले, (प्रहेतारम्) सर्वप्रेरक, (अप्रहितम्) स्वयं किसी के द्वारा प्रेरित न हुए, (आशुम्) शीघ्र फलप्रदाता, (जेतारम्) सर्व विजयी (हेतारम्) प्रगति तथा वृद्धि के प्रदाता (रथीतमम्) शरीर-रथों के सर्वश्रेष्ठ स्वामी, (अतूर्तम्) अविनाशी तथा (तुग्र्यावृधम्) शारीरिक रसरक्तों के वर्धक परमेश्वर के [गृणे] गुण वर्णन करता हूँ।
टिप्पणी
[तुग्र्या=उदकम् (निघं০ १.१२)। मन्त्र में शारीरिक जल का अर्थात् रस-रक्त का वर्णन प्रतीत होता है, चूंकि शरीर-रथ का वर्णन हुआ है। गृणे=अगले मन्त्र ४ से “गृणे” पद का सम्बन्ध इस मन्त्र के साथ भी है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
O men and women of the earth, for your protection and progress follow Indra, unaging, all inspirer and mover, himself unmoved and self-inspired, most dynamic, highest victor, thunderer, master of the chariot of life, inviolable augmenter of strength to victory.
Translation
O people, you for your security go to the mighty ruler who is mature in age and thought, who attacks and whom none may attack, who is inciter, swift, victorious, best of charioteers and Vanquished strengthener of the man who rends the enemies.
Translation
O people, you for your security go to the mighty ruler who is mature in age and thought, who attacks and whom none may attack, who is inciter, swift, victorious, best of charioteers and Vanquished strengthener of the man who rends the enemies.
Translation
See Atharva, 20.92.16.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ३ सामवेद में भी है-पू० ३।१०।१ ॥ ३−(इतः) गच्छतः प्राप्नुतः। ते क्षोणी-म० २ (ऊती) ऊत्यै रक्षायै (वः) युष्माकम् (अजरम्) जरारहितम् (प्रहेतारम्) हि गतौ-तृन्। प्रकर्षेण गमयितारम् (अप्रहितम्) केनाप्यचालितम् (आशुम्) वेगवन्तम् (जेतारम्) जयकर्तारम् (हेतारम्) हि वृद्धौ-तृन्। वर्धयितारम् (रथीतमम्) रमणीयपदार्थानां स्वामितमम् (अतूर्तम्) तुरी हिंसने-क्त। अहिंसितम् (तुग्र्यावृधम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। तुज तुजि हिंसाबलाधाननिकेतनेषु रक्, तुग्र-यत्। निवासाय हितस्य वर्धकम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্যগণ!] (বঃ) তোমাদের (ঊতী) সুরক্ষার জন্য (অজরম্) জরারহিত/অজর [সদা বলবান] (প্রহেতারম্) সকলের চালনাকারী, (অপ্রহিতম্) কারো দ্বারা চালিত নন, (আশুম্) বেগবান, (জেতারম্) জয়কর্তা/বিজয়ী/বিজয়শীল, (হেতারম্) বৃদ্ধিকারক, (রথীতমম্) রমণীয় পদার্থসমূহের সর্বশ্রেষ্ঠ স্বামী, (অতূর্তম্) অহিংসিত, (তুগ্র্যাবৃধম্) জনপদের/বাসস্থানের হিতকারীদের বর্ধক [পরমেশ্বরকে] (ইতঃ) এই উভয়ই [দ্যাবাপৃথিবী -ম০ ২] প্রাপ্ত হয় ॥৩॥
भावार्थ
যে পরমাত্মা দ্যাবাপৃথিবীর পদার্থ মানুষের হিতের জন্য রচনা করেছেন, সেই জগদীশ্বরের সর্বদা ভক্তি করে মানুষ বলবান হয়ে বৃদ্ধি করুক ॥৩॥ মন্ত্র ৩ সামবেদেও আছে-পূ০ ৩।১০।১ ॥
भाषार्थ
হে উপাসকগণ! (ইতঃ) এই ক্লেশ-সমূহ থেকে (বঃ) তোমাদের রক্ষার জন্য আমি—(অজরম্) অজর, (প্রহেতারম্) সর্বপ্রেরক, (অপ্রহিতম্) স্বয়ং কারোর দ্বারা অপ্রেরিত, (আশুম্) শীঘ্র ফলপ্রদাতা, (জেতারম্) সর্ব বিজয়ী (হেতারম্) প্রগতি তথা বৃদ্ধির প্রদাতা (রথীতমম্) শরীর-রথের সর্বশ্রেষ্ঠ স্বামী, (অতূর্তম্) অবিনাশী তথা (তুগ্র্যাবৃধম্) শারীরিক রসরক্তের বর্ধক পরমেশ্বরের [গৃণে] গুণ বর্ণনা করি।
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